पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२९५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

आरामे विहरन्तीं च शुककोकिलनादिते । यहच्छयाऽऽगतस्तत्र नारदो मुनिसत्तमः । वनलक्ष्मीमिवालोक्य विस्मयादिदमब्रवीत् ।। ४ ।। श्री वराहजी बोले-उस कमलशायिनी कन्या को देखकर मतिमान आकाश राजा ने उस पृथ्वी-पुत्री का नाम पद्मिनी रखा । उस यौवनसम्पन्ना, सखिगणों से पिरी हुई शुक तथा कोयलकूजित बगीचे में विहार करती हुई पद्मिनी के पास एक दिन अकस्मात मुनिसत्तम नारदजी आ गये और वनलक्ष्मी के समान उसको देखकर आश्चर्य से यह बोले । २-४) 277 नारद उवाच :- काऽसि कस्य सुता भीरु ! हस्तं दर्शय मे तव' । इत्युक्ता सा सुचार्वङ्गी स्वात्मानं मुनयेऽब्रवीत् ।। ५ । 'वियद्राजसुता ब्रह्मन् ! लक्षणानि वदस्व मे । इत्युक्तस्स तदा प्राह नारदो मुनिसत्तमः ।। ६ ।। नारद उवात्र :- नारदजी ने बोले-तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? हे भीरु ! अपना हाथ मुझको दिखाओ । ऐसा कहे जाने पर वह सुन्दर शरीरवाली अपने विषय में मुनि से कही कि-हे :ह्मण ! मैं आक्राश राजा की कन्या हूँ, मेरे लक्षणों को कहिये । (५-६) नारदोदीरितपद्मावतीशरीरलक्षणानि शृणु त्वं चारुवदने लक्षणानि वदामि ते । पादौ प्रतिष्ठितौ सुश्रु ! रक्तपद्मदलान्वितौ ।। ७ ।। ( पादाङ्गुल्यः समारक्ता रक्ततुङ्गनखान्विताः । गुल्फौ गूढौ समावेतौ जङ्गे चारोमशे शुभे ।। ८ ।।