पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३०

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12 गुंजान कूक से मनोमुग्भ्रकारी अनन्त पक्षियों से शोभित ; मल्लिका, मालती, बेला जूही इत्यादि फूलों से लदे हुए ; दिव्य सुगन्धि फैलानेवाली लताओं से सज्जित ; सिंह शार्दूल मतवाले हाथी, गैडे, और बंदरों से परिञ्याप्त, गाते हुए किन्नर तथा किन्नरियों की पंक्तसि सुशोभित, अनन्त झरने, सोते, स्न को आनन्द देने वाले नाना भांति के रूप में अनेक युक्त महात्माओं से सेवित, नारायणगिरि नामक परमात्मा का---जिसका विस्तार तीन योजन चौडा और तीस थोजन लम्बा था और जो सब शरीरधारियों के आदमस्वरूप भगदान का शरीर, श्री शेषनाम के आकार का अत्यन्त दिव्यरूप, महापुण्यदायक, दर्शकों के नोक्षदायक-क्रीडा पर्वत देखा । (१० १७) दिव्याकारं महापुण्यं पश्यतां मोक्षदायकम् ।। १८ ॥ एवंरूपं गिरिश्रेष्ठं स्कन्धदेशे निधाय तम् । परिवारैरुपेतं च भगवत्परिचारकैः ।। १९ ।। ऐसे िगरिश्रेष्ठ परिवारक को भगवान् के सब और सय गणों के सहित अपने कंधे पर रख सुवर्ण की चमकवाले गरुङ जी भयंकर वेग से आ पहुँचे । (१८.१९) ततः ससंभ्रमो वायुरुदभूच्च विहायसि ।। २० ।। धुन्वन्वृक्षांस्ततो भूमौ सूर्यकोटिरिवाऽवभौ । तेजोरूपस्ततः श्रीमानागतो विष्णुवाहनः ।। २१ ॥ आगतं गरुडं वीक्ष्य स्थापयेह खगेश्वर ! इत्युवाच हरिः सोऽपि स्थापयामास तं तथा ।। २२ ।। ततो गिरिं समारुह्य श्वेतषोत्री हरिः स्थितः । इससे अवकाश में वायु पूर्णरूप से चलने लगा । तेजरूप विष्णुवाहन श्री गरुडजी पङ्गों को हिलाते हुए भूमि पर आते हुए कोटि सूर्य के समान प्रकाशित हुए, गरुड को देखकर परमात्माने कहा, तुम इसे यहाँ स्थापित कर दो । तदनुसार उन्होंने उस पर्वत को स्थापित कर दिया। (२०-२२)