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282 कामदेव के समान सुन्दर, श्याम, कमलदल के आकार की कानों तक फैली हुई आंखवाले, सुन्दर, पतला, पीताम्बर पहने, नीलोज्ज्वल कमर बन्दी लपेटे, पद्मरागमणि के चमकदार सुन्दर कुण्डलवाले, रत्न तथा सुवर्ण से जटित दिव्य धनुष को धारण किये, दूसरे हाथ में सोने के बाण लिये, पीली कधनी कमर में लपेटे, रत्न के कडे, विजायाष्ठ तथा कर धनी से शोभित विशाल छाती पर चमकते हुए भवर से युश्त, तोते के यज्ञोपवीत से मनोहर स्कन्ध देशवाले तथा काले भेडिये का बड़ी तेजी से पीछा करनेवाले पुरुष को उस पर देखकर स्त्रियाँ आश्चयित हो हँसती हुई वहीं ठहर गयी । (२७-३२) तं दृष्ट्वा ह्ययमारूढं गजेन्द्रो नम्रमस्तकः ।। ३३ ।। लुण्डमुद्धत्य गर्जन्वै विनिवृत्य यया वनम् । तस्मिन्गते गजे तत्र हयारुढः समाययौ । ईहामृगं विचिन्वानः पुष्पलावीसमीपतः ।। ३४ ।। घोडे पर चढ़े उनको देखकर गजेन्द्र माथा नवाया और गर्जता हुआ लौटकर वन में चला गया । उस हाथी के चले जाने पर भेडिये को ढूंढता-ढूंढता वह घोडसवर उन फल तोडनेवालियों के निकट आ गया । (३३-३४) भगवतः कन्यकानां चान्योन्थसंवादः ताः समेत्य स चोवाच तुरगोपरि संस्थितः । ‘अत्रागतो मृगः कश्चित् ईहामृग इतीरितः । दृष्टो वा भवतीभिः स बूत मे कन्यका' इति ।। ३५ ।। भगवान तथा कन्यकाओं के परस्पर वार्तालाप वे उनके निकट आकर घोडे पर बैठे ही बैठे बोले कि. हे कन्याओो ! यहाँ क्या कोई भेडिया आया था ? आप लागों ने उसे देखा हो तो मुझसे कहो। (३५)