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283 श्रीवराह उवाच :- प्रत्यूचुस्तास्तु तं कन्या दृष्टोऽस्माभिर्न कश्चन । किमर्थभागतोऽस्माकं वनं वर धनुर्धरः ।। ३६ ।। अत्रावध्या मृगास्सर्वे वर्तमाना निषादप ! आशु गच्छ वनादस्मादाकाशात्मजपालितात् ' ।। ३७ ।। श्री वराहूजी बोले-उसे उन कन्यायों ने जवाब दिया कि हम लोगों ने कभी नहीं देखा है । उत्तम धनुषधारी होआप हम लोगों के वन में किस लिये आये हैं । हे निषादपति ! यहाँ पर रहनेवाले सभी मृग अवध्य है। आकाश राजा के पुत्र से पालित इस वन से श्रीघ्र चले जाओ । (३६-३७) इति तासां वचः श्रुत्वा हयादवरुरोह सः । ‘कास्तु यूयमियं चापि कनकाम्बुजसन्निभा ॥ ३८ ॥ सुभगा चारुसर्वाङ्गी पीनोन्नतपयोधरा । बूत मेऽहं गमिष्यामि श्रुत्वा स्वस्यालयं गिरिम्' ।। ३९ ।। उनका ऐसा वचन सुनकर वह घोडे से उतर गया । आप सब कौन हैं ? और यह स्वर्णकमल के ऐसी सर्वाङ्गमनोहर बड़े बड़े ऊँचे स्तनोंवाली सुन्दरी भी कौन हैं यह मुझे कहो, यह सुनकर मैं अपने निवास स्थान पर्वत पर चला जाऊँगा । (३८०३९) इति तस्य वचश्शूत्वा धरण्यात्मजयेरिता । सखी पद्मावती प्राह निषादं पर्वतालयम् ।। ४० ।। ‘आकाशराजतनया वसुधातलसम्भवा । अस्माकं नायिका शूर पद्मिनी नाम नामतः ।। ४१ ।। बूहि त्वं सुभगाकार ! किन्नामा कस्य वा सुतः ? जाति: का कुल ते वासः किमर्थ त्वमिहागतः? ।। ४२ ।।: