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285 भयंकर हैं, जिसके शंत्र की ध्वनि सुकर वैरिगण मोदित हुये हैं, जिसके धनुष के समान देवताओं का भी धनुष नहीं हैं, व्ही वेङ्कटाचल निवासी वीरों का स्वामी मुझे कहा है । वही में उस पर्वततट से निषाद अनुचरों से परिवृत होकर शिकार के लिए घोड़े पर चढ़ कर आप लोगों के वन में आया हूँ । मुझसे ही पीछा किया हुआ कोई मृग दायुवेग से चला गया । उसको न देखकर वन को देखते-देखते इस सुन्दरी को देखा । मैं कामवश यहाँ बाप लोगों के पास आया हूँ । क्या यह (राज पुत्री) मुझ से पायी जा सकेगी। (४३-४८) इति कृष्णवचः श्रुत्वा कुद्धास्ताः पुनरब्रुवन् ।। ४९ ।। ‘आकाशराजो दृष्ट्वा त्वां कृत्वा निगडबन्धनम् । यावन्नयति तावत्वं गच्छ शीघ्र स्वमालयम् ' ।। ५० ।। तजितस्ताभिरेवं स हयमारुह्य शीघ्रगम् । युक्तस्वानुचरैः सर्वैर्ययौ द्रुततरं गिरिम् ।। ५१ ।। कृष्ण के इस वचन को सुनकर सभी क्रोधित हो उससे पुन: बोली कि आकाश राजा तुमको देखकर कठिन बन्धन में बाँधकर जब तक नहीं ले जाता है उसके पहले ही तुम अपने घर शीघ्र चले जाओ ! उनसे इस तरह डराया जाकर वह शीघ्रगामी घोडे पर चढ़कर अपने सभी अनुरों से युक्त हो शीघ्रतर पर्वत पर चले गये । (४९-५१) इति श्रीवराहपुराणे भूगोलोपाख्याने धरणीवराहसंवादे श्रीवेङ्कटाधलमाहात्म्ये उत्तराधे उद्यानवासिन्याः पद्मावत्यास्समीपे नाददागमनं श्रीश्रीनिवासमृगयादिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः