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288 मोहित श्रीनिवास से बकुलमालिका की उक्ति तव मध्याहन काल में अति उत्तम सुगन्ध सुस्वादु, रसदार, देवताओं के योग्य, अत्यन्त सुन्दर एवं सुव्यंजन अन्न, शुद्धान्न, पायसान्न, गुडान्न तथा मुद्गान्न एवं पाँचों तरह के अपूप, पूरियाँ बड़े आदि तैयार कर सखी श्री वकुलमालिका पद्मावती, पद्मपन्ना, चित्ररेखा आदि सबों के साथ शीघ्र भगवान को देखने गयी । उन सभी उत्तम स्त्रियों को भगवान के द्वारपर रखकर पुनः स्वयं वकुलमालिका भगवान के निकट पहुँची। भगवान के निकट जाकर उसने भक्तिभाव से प्रणाम किया । पीछे भगवान को रत्न भूषित शय्यापर आंखे बन्द किये, कुछ सोचते हुए तथा विवा (मोहित) देखकर चरणसेवा पूर्वक स्वच्छ मन्दहास से युक्त होकर बोली । (६-११) ‘उत्तिष्ठ देवदेवेश ! किं शेषे पुरुषोत्तम! । परमान्न कृतं देव भोक्तुमागच्छ माधव ! ।। १२ ।। किं वा त्वमार्तवच्छेषे सर्वलोकार्तिनाशन । मृगयामटता देव! किं दृष्टं भवता वने ।। १३ ।। अवस्था ते विशालाक्ष ! कामुकस्येव दृश्यते । का दृष्टा देवकन्या वा मानुषी वाऽहिकन्यका । बूहि मे त्वमचिन्त्यात्मन्कन्यां तां चित्तहारिणीम् ।। १४ ।। हे देवदेवेश ! हे पुरुषोत्तम !! क्यों सोते हैं? उठिये । हे देव ! परमान्न तैयार है, हे माधव, भोजनार्थ आइए । हे सकल लोकों के दुःख को नाशकरनेवाले आप दुःखितों के सनान क्यों सोये हैं । शिकार के लिये घूमते समय आपने वन में या देखा ? हे विशालाक्ष ! आपकी अवस्था कामार्त के सामान दीखती है, देव कन्या, मनुष्यकन्या वा नागकन्या कौन देखी गयी । हे अचिन्त्य स्वरूप ! आप मुझसे उस चित्तहारिणी कन्या के बारे में कहे । (१२-१४) श्रीवराह उवाच : तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा निश्वासमकरोद्विभुः । निश्वसन्तं पुनः प्राह प्रीता वकुलमालिका ।। १५ ।।