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280 तेनैव रक्षसा स्पृष्टां पुरा वेदवतीं शुभाम् । अग्नौ विसृष्टदेहां तां संहर्तु रावणः पुनः ।। २१ ।। सीताया रूपसदृशीं कृत्वा चैवोत्ससर्ज ह । सा रावणहृता भूत्वा लङ्कायां च निवेशिता ।। २२ ।। हते तु रावणे पश्चात्पुनरग्नि विवेश सा । इसी बीच में अग्निहोत्र की अग्नि ने रावण के उस प्रकार के उद्यम को समझ, सीता को पाताल में लाकर, स्वाट्टा में निवेश करवाकर, उसी राक्षस (रावण) से पहले ही धुयी गयी अन्ति में प्रविष्ट सुन्दरी वेदवती को सीता के समान रूप बना रावण का संहार करने के लिए वही छोड़ दिया । वही रावण से हरो जाकर लंका में गई और रावण के मारे जानेपर पीछे फिर भी उसी ने अग्नि प्रवेश किया । (२०-२३) अग्निस्तु रक्षितां लक्ष्मीं स्वाहायां मम जानकीम् ।। २३ ।। दत्वा हस्ते च मामाह सीतया सहितं शिखी । 'इयं वेदवती देव! सीतायाः िप्रयकारिणी ॥ २४ ॥ सीतार्थ राक्षसपुरे तेन बन्दीकृता स्थिता । तस्मादेनां वरेणैव प्रीणय त्वं श्रिया सह ।। २५ ।। इति वह्निवचः श्रृत्वा सीता मामवदच्छुभा । 'मम प्रीतिकरी नित्यमियं वेदवती विभो । तस्मात्परं भागवतीं देवैनां वरय प्रभो ' ।। २६ । । अग्नि द्वारा स्वाहा (ज्वाला) में रक्षिता लक्ष्मी अथवा मेरी जानकी को हाथों में सौंपकर सीता सहित मुझ से अग्न् िदेव ने कहा कि हे देव ! यह सीता का प्रिय करनेवाली वेदवती है। सीता के लिए राक्षसनगरी में उस राक्षस