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292 सुग्दरी को पहले ही वरदान दिया था, आज वहो नारायण पुर में पृथ्वीतल से उत्पन्न, कमला के सपान, कमलाक्षी वर पायी हुई, अपने समानरूपवाली सखियों के साथ बन में फूलों को चुनती हुई, मनोरमा तथा ती पद्मा शिकार के लिए घूमते समय मुझसे देखी गयी । उसका रूप सैकडों वर्षों में सी मुझसे वर्णित नहीं हो सकता । लक्ष्मी ही की तरह यदि आज उडसे मेरा सङ्गम ही जाता तो प्राणस्थिर हो जाते, तुम इसी को सत्य-सत्य जानो ! (२७-३३) वियद्राजपुरं प्रति वकुलमालिकागमनम् इत्युक्त्वा मोहमापन्न तं प्राह वकुला पुनः । ‘इतो गच्छामि देवेश! मनोज्ञा तव यत्र सा ।। ३४ ।। मार्ग वद रमाधीश ! गमिष्ये येन तां प्रति' । आकाश राजा के पास वकुलमालिका का जाना हे वकुलमालिके । तुम नारायणपुर जाकर उस कन्या को देख उसके रूप सौन्दर्भ से जानोगी कि इसके योग्य यही है। अनिंद्य, सुन्दरी, विशालनेत्रा पद्म तथा इन्दीवर के समान आँखवाली इत्यादि कहकर मोहित हुए उनसे पुनः वकुलमालिका बोली कि हे देवेश ! मैं अभी आपकी आज्ञा से यहाँ से जहाँ वह है, जाती हुँ । हे रमाधीश ! रास्ता बतावें जिससे उसके पास जाऊँगी। (३४-३५) एवमुक्तो रमाधीशस्तां प्राह वकुलस्रजम् ।। ३५ !! ‘इतो गच्छ महाभागे! श्रीनृसिंहगुहा यतः । तन्मार्गेणावतीर्याऽस्मात् भूधरन्द्रान्मनारमात् ।। ३६ ।। अगस्त्याश्रममासाद्य दृष्ट्वा लङ्ग तदाश्वतम् । ‘अगस्त्येश' इति ख्यातं सुवर्णमुखरीतटे ।। ३७ ।। तीरेणैव ततो गच्छ शुकब्रह्मऋषेर्वनम् । पश्यन्ती स्वर्णमुखरीं तत्र कल्लोलमालिनीम् ।। ३८ ।।