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तत्र पञ्चसरो नाम पावनं पद्मसंयुतम् । तत्र स्नात्वाऽथ तत्तीरे तपन्तं मुनिसत्तमम् ।। ३९ ।। छायाशुक नमस्कृत्य कृष्ण च बलसंयुतम् । आराध्यमानं मुनिना शुकेन सततं शुभे ।। ४० ।। इन्द्रनीलमणिश्यामं पीतनिर्मलवाससम् । तीर्थयात्रां गमिष्यन्तं बलभद्र सिताकृतिम् ।। ४१ ।। उपासयन्तं मन्त्राणि मुक्तान्वितकरद्वयम् । उद्यन्त पादुकायुक्त बलभद्र प्रणम्य च ।। ४२ । । आदाय स्वर्णकमलं सरसोऽस्माद्वरानने । तीत्व सुवर्णमुखरी वनान्युपवनानि च ।। ४३ । । अरणीतीरमासाद्य विश्रम्य च वनान्तरे । नारायणपुरीं दृष्ट्वा विस्मयं च गभिध्यसि ।। ४४ ।। यह कहने पर रमापति भगवान उस वकुलमालिका से बोले-हे महाभागे यहाँ से, जहाँ श्री नृसिंह गुद्दा है, वहाँ जाओ । वहाँ से उसी रास्ते इस मनोरम पर्वत पर से उतरकर अगस्त्य ऋषि के आश्रम को जा, उन्हीं (अगस्त्य) से पूजित अगस्त्येश, ऐसा प्रसिद्ध स्वर्णमुखरी के तटपर लिङ्ग के दर्शन कर, तट-ही-तट से ब्रह्मर्षि शुकदेव जी के वन में तरङ्गयुक्तः स्वर्णमुखरी नदी को देखते-देखते आगे जाना । वहाँ पर कामक्षयुक्त पदग्रसर नामक पवित्र तालाब है । हे सुमुखि ! उसीमें स्नान कर, उसी के तीरपर तपस्या करते हुए मुनिसत्तभ छःथा शुक को नमस्कार कर, मुनिवर शुकदेव जी से सदा आराधित, इन्द्रनीलमणि के समान श्याम, पवित्र पीताम्बर पहने, तथा बली श्री कृष्ण जी एवं तीर्थयात्रा में जाते हुए, गौरवर्ण, मन्त्रों से उपासना करते हुए, मुक्ता के समान दोनों कर कमलवाले एवं ऊँचे-ऊँचे पादुकायुक्त. श्री बलमद्र जी को नमस्कार कर, उसी तालाब से स्वर्णकमल लाकर, सुवर्णमुखरी तथा घन उपवन पार हो, अरणी नदी के तीर पर पहुँच विश्रामपूर्वक दूसरे जंगल में नारायणधुरी को देखकर आश्वयं को प्राप्त हो जावोगी । (३६-४४)