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14 तृतीयोऽध्यायः देवदिकृतश्वेतवराहप्रार्थना तत्र देवाः सगन्धर्वा ब्रह्माद्या मुनयोऽपि च । आजग्मुलोकपालाश्च शङ्करः पार्वतीप्रभुः ।। १ ।। ऋषयः सप्त वसवो रुद्रादित्या मरुदगणाः । तुष्टुवुश्च हृषीकेशं वासुदेवं जगत्प्रभुम् ।। २ ।। सनकादि सिद्ध महेश ब्रह्मलोक पालादिक सभी । यों उग्र अद्भुत रूप प्रभुवर का न देखा था कभी ।। १ ।। ो विकल अति भयभीत सवने विनय की अति प्रेम से । परमेश ! सौम्य स्वरूप धारण कीजिये शूचि नैम से ।। २ ॥ स्तुति तुष्ट प्रभु धर सौम्य वपु निज प्रिय निवास गिरीश ही । कृत सूत पुण्य पवित्र-सलिला स्वामि पुष्कर दिव्य ही ।। ३ ।। पूरक सकल मनकाम झा कर घोष अन्तर्हित हुये । माहात्म्य अद्भुत अकथ अगणित भांति बहु वर्णित भये ।। ४ !! देवादिकृत श्वेतवराह प्रार्थना ब्रह्मादि देवतागण, गन्धर्वगण; मुनिगण लोकपाल, पार्वतीपति श्री शंकर भगवान्, सप्तर्षिगण तथा रुद्रादि मरुद्गण उसी जगह आकर जगत्प्रभु हृषीकेश भगवान वासुदेव की स्तुति करने लगे । (-२) जय लक्ष्मीश ! लोकेश ! जय भूमिधराच्युत ! । जय विष्णो ! हिरण्याक्षविध्वंसनविचक्षण ! ।। ३ ।। द्रष्ट्राकरालवदन ! भृकुटीकुटिलेक्षण ! । भयङ्करमिदं रूपमत्युग्र घोरदर्शनम् ।। ४ ।।