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305 मायादी परमानन्दः श्रिया सह रमापतिः । कामरूपी विहरते स्वभक्ताभीष्टदो हरिः ।। ३६ ।। दूध के साथ अन्न पा, उसे पुत्र को देकर उस सीने सत्य-पत्य कहा । हे भीरु ! तुम्हारी सुन्दरी पुत्री के शरीर को सूखा देने का कारण एक पुरुष द्वारा प्राप्त हुआ है । उस पुरुष के रूप को न देखने से यह पुत्री काम देज के बाणों से पीडित तथा शरीर ताप से जल रही है। वह तो देवादिदेव, स्वयं वैकुण्ठ से आये हुए, श्री वेङ्कट पर्वत के शिखर पर स्वामिपुष्करिणी के तीर पर रहनेवाले कामरूपी, महामायावी परमानन्द पुरुष तया अपने भक्तों के अभीष्ट को देनेवाले भगवान श्री लक्ष्मी जी के साथ कामरूप होकर विहार करते हैं । (३३-३६) स तुरङ्ग समारुह्य विहरन्काननान्तरे । आगत्योपवनं राज्ञि ! तव कन्यां सदृष्टवान् ।। ३७ ।। रमासमामिमां दृष्टा स्वयं कामवशं गतः । स्वसखीं ललितां देवः प्रेषयिष्यति तेऽन्तिकम् । । ३८ ।। रमेव तं समेत्यैषा रमिष्यति सुखं चिरम् । एतत्सत्यं मम वचः तस्याचैव नृपात्मजे ।। ३९ ।। पुत्रस्यान्न प्रयच्छेति तूष्णीमास पुलिन्दिनी । हे रानी ! उन्होंने ही घोडे पर सवार हो, दूसरे-दूसरे जङ्गलों में विचरते हुए; आपके उपवन में आकर लाएकी पुत्री को देखा। इसको साक्षात रमादेवी के समान देखकर वह स्वयं कामवश हो गये। वह भगवान अपनी सखी ललिता देवी की तुम्हारे पास भेजेंगे । यह पुत्री उनको पाकर रमादेवी ही के समान अनन्त काल तक सुख से रमण करेगी। यह हमारी बात सत्य है। हे राजपुत्रि ! मेरे लड़के के लिये कुछ अन्न दो, ऐसा कहकर वह पुलिन्दिनी चुप हो गयी । (३७-४०) 40