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हे माता ! जो संसार में आंखों के प्यारे एवं सज्जनों के भी प्रिय हैं, जिसको देखने की इच्छा ब्रह्मादियों को भी है; जो महान एवं सर्वव्यापी है; जो तेजस्वियों में भी तेजस्वी, देवताओं के भी देवता और सच्चे भक्तों को ही प्राप्य तथा अभक्तों के कभी भी नहीं प्राप्य हैं उसी परम पुरुष में मेरा मन लग गया है । हे माता ! उसी भक्तों के सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले को खोज दो । {४४.४६) 307 श्री वराह उवाच :- एतच्छूत्वाऽथ धरणी तामपृच्छत् पुनः सुताम् । तद्भक्तलक्षणं ब्रूहि यैः प्राप्यं तत्सुलोचने' ।। ४७ ।। श्री बराह भगवान बोले-यह सुनकर धरणी देवी ने उस पुत्री से पुनः पूछा । हे सुलोचने ! उन भक्तों का लक्षण बतादो; जिनसे वे प्राण्य है । पद्मालथोवाच :- भक्तानां लक्षणं मातः! शृणु गुह्य समाहिता । शङ्खचक्राङ्किते नित्यं भुजयुग्मे वसुन्धरे ।। ४८ ।। ऊध्र्वपुण्ड् सान्तरालं तेषामेव विशेषतः । पुण्ड्राणि द्वादश पुनर्धारयन्ति तथाऽपरे ।। ४९ ।। ललाटोदरहृत्कण्ठे जठरे पार्श्वयोरपि । भुजद्वन्द्वे सयुग्मे च पृष्ठे च गलपृष्ठके ।। ५० ।। केशवादीनि नामानि द्वादशाङ्गेषु द्वादश । ‘वासुदेवेति तन्भूध्नि धारयन्ति नमोऽस्त्विति ।। ५१ ।। तेषां तु नियमान्वक्ष्ये मातः शृणु मनोरमान् । (४७)