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308 पद्मालश्श बोली-हे माता! भक्तों का गुह्यय लक्षण ध्यान से सुतो । हे माता हे वसुन्धरे! उनकी शङ्खचक्र से अङ्कित युगल भुजाओं पर विशेषतः अन्तराल के साथ साथ ऊध्र्वपुण्डू रहता है ! पुनः दूसरे भक्तगण बारह पुण्टू को ललाट, पेट, हृदय, कण्ठ, उदर, दोनों पाश्र्व (बगल) दोनों बाहुओं पीठ तथा गल पृष्ठ पर “केशव ' आदि बारह नामों को और शिर पर “ वासुदेव ” ऐसे नाग का उच्चारण करते हुए तथा नमोस्तु कहते हुए धारण करते हैं। हे भातः उनके भनोहर नियमों की कहती हूँ, सुनो । (४९-५१) वदपारायणरतः कम कुत्रान्त वादकम् ।। ५२ ।। सत्यं बदन्ति ये देवि! नासूयन्ति परान्क्वचित् । परनिन्दां न कुर्वन्ति परस्वं न हरन्ति ये ।। ५३ ।। न स्मरन्ति न पश्यन्ति न स्पृशन्ति कदाचन । परदारान् सुरूपाञ्श्च ये च तान् विद्धि वैष्णवान् ।। ५४ ।। सर्वभूतदयावन्तः सर्वभूतहिते रताः । सदा गायन्ति देवेशमेतान्भक्तानवेहि वै ।। ५५ ।। येन केन च सन्तुष्ठाः स्वदारनिरताश्च ये । वीतरागभयक्रोधास्तान्भक्तान्विद्धि वैष्णवान् ।। ५६ ।। एवंविधैर्गुणैर्युक्ताः पञ्चायुधधरा अपि । जो वेदों के जप में आसक्त रहकर, वैदिक कम हो ज़रते हैं, जो सत्य बोलते हैं, दूसरों से कमी असूया या घृणा तथा निन्दा न्हीं करते जो कभी दूसरों के धन को नहीं लेते और दो दूसरों की सुन्दर स्त्रियों के रूप को कभी भी नहीं देखते, न स्मरण करते, वा न धूते हैं, उन्हीं भवतों को हे देवि ! वैष्णव समझो ! जो सब जीवों पर दया करनेवाले, सभी जीओं की भलाई में लगे हुए तथा सदा भगवान का यशगान करनेवाले हैं, उन्ही को भक्त जानो ! जो जिस किसी प्रकार भी सन्तुष्ठ; अपनी ही स्त्री में निरत, राग, द्वेष, कोद्य एवं भय से रवित हों, जो पाँच आयुधों, (शंख, चक्र, गदा, खड्ग तथा घनुष) को धारण करनेवाले होकर भी इन इन गुणों से युक्त हैं, उन्हें ही वैष्णव जानो । (५२-५६)