पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३२८

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310 वा एक स्रौ आठ वार आहुति करे तथा महाव्याहृतियों से चक्रादि को करे । पीछे विद्वान उसे सहन करने लायक गरम कर गुरु से मन्त्र को उच्चारण कराकर धारण करे । दोनों भुजाओं में शंख तथा चक्र मस्तक पर शाङ्गवीण, ललाट में गदा वऔर हृदय में खड्ग क्रो धारण करे । मोक्ष की इच्छादाले वैष्णव से इस प्रकार उक्त पांचों ही (चिन्ह) धारण किये जाते हैं अथवा भुजाओं में सुलक्षण शंख चक्र के चिन्ह धारण करवाले । चिन्हों से जो भक्त युक्त हो वहीं बैष्णय भक्त हैं। उन्ही सदाचार युक्त भक्तों से वह ब्रह्म प्राप्य हैं। उन्ही (ह्म) में मेरा प्रेम हैं, और मेरा मन उन्ही को पाने की इच्छा करता है? हे माता ! विष्णु के सिवाय और किसी से मेरी इच्छा नहीं जाती ! मैं श्यामल विष्णु को ही स्मरण करती हूँ। और अच्युत भगवान का ही भजन करती हूँ । हे माता उन्हीं से में जीऊँगी, अतः उनसे िमलने का उपाय करो । (५७-६५) श्रीवराह उवाच :- इत्युक्त्वा मातरं दीनां विररामाम्बुजानना । तत् श्रुत्वा चिन्तयामास विष्णुः प्रीतः कथं भवेत् ।। ६६ ।। श्रीवराहजी बोला-इस प्रकार दुखिया माता से कह कमलमुखी चुप हो गई। वह उसे सुनकर सोचने लगे कि विष्णु भगवान किस प्रकार प्रसन्न हो सकते हैं । (६) वकुलमालिकया सार्ध सखीनां धरणीसमीपे आगमनम् एतस्मिन्नन्तरे कन्या अगस्त्येशं समच्र्य च । आगता धरणीं द्रष्टुं सहैव वकुलस्रजा ।। ६७ ।। आगतान्ब्राह्मणाँस्तत्र पूजयित्वा सुभोजनैः । दत्वाऽथ दक्षिणाः पूर्णा वस्त्रालङ्कारसंयुताः ।। ६८ ।। आशिषो वाचयित्वाऽथ वाञ्छितार्थस्य सिद्धये । विसृज्य ब्राह्मणान्सर्वानथापृच्छत्स्वयोषित । पूजयित्वा ह्यगस्त्येशमागतास्ता मनस्विनी: ।। ६९ ।।