पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३३

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15 दृष्ट्वा तद् व्यथिताः सर्वे सुराश्च परमपंथः ।। ५ ।। अनुग्रहीतुं लोकान्वै त्वयाऽऽत्र स्थीयतां गिरौ । भयङ्करं त्वदीयं वै रूपमद्भुतदर्शनम् ।। ६ ।। तद् दृष्ट्वोद्विग्रहृदया भवेयुरदृढा नराः । देवतानां मनुष्याणां वासार्थ चोद्धृता धरा ।। ७ ।। तस्मान्मनुजरक्षार्थ सौम्यरूपं हि धारय । च कमसू अस्माकं मनुजानां च स्त्रीशूद्राणां तथैव च । दृश्यस्त्वं वरदो भूत्वा वस नित्यमिहैव भोः' ।। ९ ।। हे लक्ष्मीपते ! त्रैलोक्य के स्वामी ! पृथिवी को धारण करनेवाले ! हे अच्युत । आपकी जय हो । हे विष्णु ! हे हिरण्याक्ष के विध्वंस करने में चतुर, कराल दांत और मुखवाले, वक्र भौंह से टेढ़ी दृष्टिवाले आपकी जय ही ! अत्यन्त उग्र महा विक्रट, महा भयंकर, ज्वलन्त अस्त्रयुक्त, अनेक भुजा-मण्डित, तथा महा भयानक आपके रूप को देखकर सभी देवता और ब्रह्मर्षि बहुत भयभीत और चिन्तित हुए हैं, अत एव आप संसार के कल्याणार्थ इसी पर्वत पर रहिये । अपके इस भयंकर अद्भुत रूप को देखकर सभी पुरुष अत्यन्त उद्विन और अधीर हो गये हैं । आपने देवता तथा भनुष्यों को रहने के लिए ही इस पृथ्वी का उद्धार किया है, अत एव भनुष्यों के रक्षार्थ आप शांत रूप ही धारण करें । ध्यान योगों में अशक्त तथा कमों में एकदम असमर्थ हम लोगों को, देवताओं को, और मनुष्यों, स्त्रियों एवं शूद्रों को आप दर्शन देकर वर प्रदान करते हुए इसी स्थान में ही सदा। निवास करें । इत्युक्तस्तैः प्रसन्नात्मा सौम्यरूपी चतुर्भुजः । श्रीभूमिसहितस्तस्थौ पुण्डरीकनिभेक्षणः ।। १० ।। शरत्पूर्णेन्दुवदनः सर्वाभरणभूषितः । श्रीनिवासः सुरान् सर्वान् समाहूयेदमब्रवीत् ।। ११ ।