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316 ततो देशमहं त्यक्त्वा तपसाऽराधयाभ्यहम् । अत्र देवं नृपचिन्त्यं प्रतिष्ठाप्य श्रियःपतिम् ।। १७ ।। अगत्स्यानुगृहान्नित्यमर्चयामि विधानतः । इति तस्य वचः श्रुत्वा सोत्प्रासं प्राह तं विभुः ।। १८ ।। तभी से मैं उस देश को छोड़कर यहाँ तपस्या एवं आराध्ना करता हूँ । हे नृप ! यहाँ उसी अचिन्त्य श्रीपति सगवान की प्रतिस्थापना कर अगस्त्यजी को कृपा से मैं विधि-विधान से पूजा करता हूँ। उसकी इन बातों को सुनकर भगवान उपहास के साथ बोले । (१७-१८) गच्छ नारायणाद्रि त्वमस्य पादे किमास्यते ? । आरुह्यानेन मार्गेण पश्चिमे शिखरे स्थितम् ।। १९ ।। प्रणम्य विष्वक्सेनं तं बालं न्यग्रोधमूलत । स्वामिपृष्करिणीं गत्वा स्नात्वा तीरेऽथ पश्चिमे ।। २० ।। अश्वत्थं तत्र वल्मीकं द्रक्ष्यसे तयोर्मध्यं समासाद्य तपः कुवित्यचोदयात् ।। २१ ।। कश्चित् श्धेतो वराहोस्मिन्वल्मीके चरति धृवम् । स तु पुण्यवतामेव सेवां यच्छति भूपते ! ।। २२ ।। तुम यहाँ त्यों ठहरे हो ? नारायणाद्रि को जाओ, इस रास्ते से चढकर पश्चिम की चोटी पर स्थित वालविष्वक्सेन को प्रणाम कर, पीपल की जड़केतले से स्वामिपुष्करिणी में जाकर, उसमें स्नान करके पीछे उसके पश्चिमी तीर पर पीपल का वृक्ष तथा उसके पास एक वल्मीक (दीमक) देखोगे । उनके बीच में बैठकर) तपस्या करो । इस वल्मीक (दीमका) में निश्चय ही कोई शत्रेत वराह रहता है। हे राजन ! वह केवल पुण्यात्माओं की ही सेवा प्राप्त करता है । (१९-२२)