पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३३८

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श्री वेङ्कटाद्रि निवासी भगवान से मांगी जा चुकी है ? आज ही मेरा मनोरथ पूराः हुआ । अब आप लोग अपनी सम्मति कहें । राणा के इन उत्तम वचनों को सुन सभी भन्त्रीगण परम प्रसन्न मन होकर महाराज आकाशराजा से बीले । (३७-३८) 'वयं कृतार्था राजेन् ! कुलं सर्वोन्नतं भवेत् ।। ३९ ।। भवत्कन्येयमतुला श्रिया सह रमिष्यति । दीयतां देवदेवाय शङ्गिणे परमात्मने ।। ४० ।। अयं वसन्तः शीमांश्च शुभं श्रीघ्र विधीयताम् । आहूय धिषणं लग्नं विवाहार्थ विधीयताम् ।। ४१ ।। तथास्त्वित्याह्वयामास सुरलोकाद्बृहस्पतिम् । पप्रच्छ कन्यावरयोविंकाहार्थ नरेश्वरः ।। ४२ ॥ हे राजेन्द्र ! आज हम लोग सश्री कृतार्थ हो गये। हम लोगों का कुल सर्वोन्नत एवं सर्वश्रेष्ठ हो गया, क्यों की आपकी यह अनुपमेया कन्या लक्ष्मी जी के साथ रमण करेगी । श्री शाङ्धनुर्धारी, परमात्मा देवादिदेव भगवान को आप इसे दे देवें । अभी शोक्षा संपन्न संतकाल है, अशी ही इस शुभ काय्यं का शीघ्र रूपांदन करें तथा श्री बृहस्पति जी को बुलाकर श्रीघ्र विवाह का लग्न निश्चय कर लें । तथास्तु (ऐसा ही हो) कहकर राजा ने स्वर्गलोक से बृहस्पति जी को बुलवाथा और कन्या तथा वर के विवाह के लिये पूछा । (३९-४२) राजोवाच बृहस्पत्युक्त्या विवाहलग्नस्थिरीकरणम् कन्याया जन्मनक्षत्र मृगशाषामात स्मृतम् । देवस्य श्रवणक्षन्तु तयोर्योगो विचार्यताम् ।। ४३ ।।