पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३३९

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श्रृत्वाऽब्रवीत्स धिषणस्तयोरुत्तरफल्गुनी । समन्तात्सुखवृध्यर्थं प्रोच्यते दैवचिन्तकैः ।। ४४ ।। तयोरुत्तरफल्गुन्यो विवाहः क्रियतामिति । वैशाखमासे विधिवत्क्रियतामिति सोऽब्रवीत् ।। ४५ ।। 321 बृहस्पति के कथनानुसार विवाह का लग्न निश्चित होना राजा नै कहा-कन्या का जन्म नक्षत्र मृगशिरा, ऐसा ज्ञास है और भगवान का तो श्रवण नक्षन्न हैं। अब आप इन दोनों को विचार करें । यह सुनकर श्री बृहस्पती जी बोले-उनका उत्तर फलगुनी ही सभी तरह से सुखवृद्धि के लिये उत्तम तथा दैवचिन्तक योतिष्यों ने बताया है । अतः वैशाख भहीने के उत्तर फलगुनी में ही इनका विवाह विधिपूर्वक कर देवें । (४३-४५) श्रीवराह उवाच :- राजा तु धिषणं तत्र सम्पूज्याथ विसृज्य च । देवस्य दूतिकामाह गच्छ देवालयं शुभे ।४६ ।। वैशाखे देवदेवाय कल्याणं वद सूत्रते । वैवाहिकविधानं तु कृत्वा चागम्यतामिति ।। ४७ ।। तत दव्याः प्रियकर शुक दूत तया सह । वसृज्य वायु स्वसुतामन्द्राद्यानयनऽसुजत् ।। ४८ ।। श्री वराह जी बोले- राजा ने श्री बृहस्पति जी की पूजा करके विदाकर श्री भगवान की दूती से कहा कि हे शुभे ! भगवान के आलय को चली जाओ, और हे सुव्रते ! ' ऐसा कहो कि देवाधिदेव भगवान का विवाह वैशाख में होगा। अतः वैवाहिक सामग्री की तैयारी कर आ जाय । पीछे देवी पद्मावती के परम प्रिय ग्रह्मर्षि शुक को उसके साथ भेजकर इन्द्रादि को लाने के लिये वायु के समान अपने पुत्र को भेजा । । (४६-४८) 42