पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३४

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6 वैकुण्ठात्परमो ह्येष वेङ्कटाख्यो नगोत्तमः । अत्रैव निवसाम्येव श्रीभूमिसहितो ह्यहम् ।। १२ ।। यह सुनकर कमलाक्ष शरत्कालीन चन्द्रमा के समान मुखवाले सब सद्भूषणों से अलंकृत प्रसन्नात्मा चतुर्भुज भगवान् सौम्य अधवा शांतरूप धारण कर लक्ष्मी एवं पृथ्वी के साथ निवास करते हुए, सव देवताओं को बुलाकर कहने लगे कि हे सुरवृन्द ! वेंकट नाम का यह पर्वत वैकुण्ठ से भी बढ़कर एवं सब पर्वतों में श्रेष्ठ है, अतः यहाँ ही लक्ष्मी तथा पृथ्वी के साथ निवास करुते हुए सभी प्रार्थी मनुष्यों को सदा मनोभिलषित अर्थ देता रहूँगा । ददामि प्रार्थितानर्थान्मनुजेभ्य सदा सूरा । इत्युक्त्वा त्रिदशान्सर्वान्ब्रह्मन्द्रप्रमुखानपि ।। १३ ।। यथाहं समनुज्ञाप्य तत्रैवान्तरधीयत । देवाश्च मुनयः सर्वे प्रतिजग्मुः स्वकालथान् ।। १४ ।। (१०-१२) इस प्रकार योग्यतानुसार बहभावि देषतागण को आज्ञा देकर भगवान उसी स्थान में अन्तर्धान हो गये और सब देवता और मुनिजन अपने-अपने स्थान पर लौट गये । (१३-१४) स्वामिपुष्करिणीमाहात्म्यम् मुनय ऊचु 'सूत ! पूर्व गिरौ तस्मिन् 'स्वामिपुष्करिणी ' ति वै । प्रसङ्गात्कथिता सा तु कीदृशी मुनिसत्तम ! । गिरेस्तस्याश्च माहात्म्यं वक्तव्यं भवतानघ' ! ।। १५ ।। मुनियों ने कहा-हे मुनिश्रेष्ठ सूतजी ! आपने पूर्व प्रसङ्ग में ही उसी पर्वत पर स्वाभि पुष्करिणी का प्रसङ्ग कहा था । हे मुनिश्रेष्ठ, वह पुष्करिणी कैसी है, उसका क्या माहात्म्य है-वह सब मुझे कहिये । (१५) सूत उवाच। मुनयः श्रूयतां किञ्चिदुत्तरं सावधानतः ।