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श्रीवराह उवाच : श्रीनिवासस्य लक्ष्म्यादिकृतपरिणयालङ्कारः अष्टमोऽध्यायः ततो देवाधिदेवोऽपि लक्ष्मीमाहूय भामिनीम् । 'किं कार्य वद कल्याणि विवाहार्थ सुलोचने ।। १ ।। आज्ञापयस्व स्वसखी रमे! कार्य कुरु प्रियम् ।' श्रीस्तु कृष्णवचः श्रुत्वा सखीनामभ्यचोदयत् ।। २ ।। रुमा ईश आलाप अरु, धारण भूषण वर्ग । शिव ब्रह्मपामर संग प्रश्रु, परिणय हित उत्सगे ।। १ । । पद्मावति ब्राता गमन, अरु विवाह की धूम् । वर-कन्या पूजा कर, अग्नि कुण्ड मह हूम ।। २ ।। प्रभु प्रसन्न वरदाननृप, विदा अमर श्रज ईश । इस अष्टभ अध्याय में कहत तेहि नमि शीश ।। ३ ।। श्रीनिवास भगवान का परिणयालङ्कार श्री वराह भगवान बोले :- तब देवादिदेव श्री भगवान ने भी अपनी स्त्री लक्ष्मी को बुलाकर कहा कि हे कल्याणि ! हे प्रिये ।! हे सुलोचने !!! विवाह के लिए क्या करना चाहिये कहो । हे रमें ! अपनी सखियों को आशा दो और अपने प्रिय कार्य को करो । श्री कृष्ण भगवान की धातों को सुनकर लक्ष्मी जी ने अपनी सखियों को आज्ञा दी । (१-२) श्रियाऽक्षसा ततः प्रीतिः सुगन्धं तैलमाददौ । श्रुतिः क्षौमं समादाय तस्थौ देवस्य सन्निधौ ।। ३ ।।