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328 लक्ष्मी जी की आशा पाकर प्रीति नामक सखी ने सुगन्धित तेल लाया । शृति कपड़े लाकर भगवान के निकट खड़ी हो गई । अनेकों भूषणों को ले स्मृति भी जानन्वित होकर आ गयी । धृति ने ऐदा लाया तया कान्ति ने कस्तूरी लाकर दिया और लज्जा यक्षकर्वम (कपूर, अगर, कस्तूरी कङ्कोलादि) लाकर सामने खड़ी हो गई। कीर्ति ने सोने के पट्ट (वस्त्र) तथा सरल मुकुट लाकार दिया । इन्द्राणी ने छत्र दिया । सरस्वती ने चामर दिया । गौरी ने दूसरा चामर दिया विजया एवं जया ने पंखे दिये । उन सबों को आये हुए देखकर भगवती लक्ष्मी जी ने शीघ्र उठकर सुगन्धित तेल लाकर शिरसे ही भगवान् के सारे शरीर में लगाकर तथा सुगन्धिस चूर्ण भगवान के अंगों में लगाकर, आकाशगङ्गादि तीथों से हाथियों द्वारा लाये हुए सैकडों कपूरादि, सुवासित जलपूर्ण, सुवर्ण कलशों से भगवान को स्नान कराया और उन ईषत श्याम केशों को धूप से धूषित (सुखा सुखा) कर बांध दिया । भगवान के ऊंग में सीने के रंगवाले गन्धद्रव्यों से लेपकर, पीली कमरधनी युक्त पौताम्बर कमर में पहनाझर इन्दिरा ने मुकुट आदि विभूषणों से भूषित किया, सभी अंगुलियों में अंगुठियाँ पहना दीं । धृति ने भगवान के निकट दर्पण दिबाया । भगवान ने दर्पण देखकर ऊध्र्वपुण्डू तिलक को स्वयं ही धारण किया । {३-१३) ब्रह्मादिभिः साकं श्रीनिवासस्य वियद्राजपुरागमनम् ब्रह्मोशवजित्रवरुणयमथक्षेशसेवितः । वसिष्ठाद्वैर्मुनीन्त्रैश्च सनकाद्वैश्च योगिभिः ।। १४ ।। भक्तैर्भागवतैर्युक्तो नारायणपुरीं ययौ । जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणा ।। १५ ।। देवदुन्दुभयो नेदुस्तदा देवस्य सन्निधौ । जपन्तः स्वस्तिसूक्तानि मुनयस्तं समन्वयुः ।। १६ ।। देवो देवगणैर्युक्तो विष्वक्सेनादिपार्षदै । सखीभिस्यन्दनस्थाभिर्वकुलाद्याभिरन्वितः। आकाशराजस्य पुरमाससाद स्वलङ्कृतम् ।। १७ ।।