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17 स्वामिपुष्करिणी पुण्या सर्वपापप्रणाशिनी ।। १६ ।। वैकुण्ठाद् भगवत्क्रीडा वापी श्रीभूमिलालिन अप्राकृतजलौधा च सुगन्धा सुमनोहराः ।। १७ ।। गङ्गादि सर्वतीर्थानां जन्मभूमिः शुभोदका । आनीता वैनतेयेन क्रीडार्थ तत्र तिष्ठति ।। १८ ।। विरजावद्रजोदोषप्रमुखाघविनाशिनी । स्वर्णस्तेयसुरापानदोषप्रमुखनाशिनी ! १९ ! ऐहिकार्थप्रदा नित्यं स्नानमात्रेण सर्वदा । दर्शनात्स्पर्शनात्पानात्स्मरणात्सर्वसिद्धिदा ।। २० ।। स्नानादिष्टप्रदा चेति किम् वक्तव्यमञ्जसा । ततस्तस्यास्तु माहात्म्यं वक्तुं देवोऽपि न प्रभु ।। २१ ।। सूत जी बोले-हे मुनियो ! आप कुछ सावधान होकर इसका उत्तर सुनिये । यही स्वामिपुष्करिणी सब पापों को नाश करनेवाली, परम पुण्यप्रदायिनी श्रीलक्ष्मीदेवी तथा श्री पृथ्वीदेवी को परम प्रिय, अप्राकृत जल से परिपूर्ण, अत्यन्त सुगन्धित तथा मनोहारिणी, तथा गंगा आदि सब तीर्थो की जन्मभूमि वैकुण्ठस्थ श्री भगवान की क्रीडावापी है। यह गरुड जी द्वारा भगवान के क्रीडार्थ यहाँ ही स्थिर हो रही है । विरजा नदी के समान ही शुद्ध जल से भरी स्वामिपुष्करिणी मल दोष आदि अनन्त पापपुञ्जों को नाश करनेवाली तथा केवल स्नानमात्र ही से मनोवाञ्छा की सदा पूर्तिकरनेवाली है। इसके दर्शन स्पर्शन अथवा स्मरणमात्र ही से सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। स्नान करने पर यह इष्ट सिद्धि देती हैं, इसमें तो कहने की कोई आवश्यकता ही नही । अत एव उस माहात्म्य का वर्णन करने में देवता भी असमर्थ हैं। देवेभ्यस्तत्समीपस्था मनुजा भाग्यशालिनः । किन्तु जानन्ति तस्यास्तु वैभवं नैव मानुषाः ।। २२ ।। प्राकृताचलवद्भाति मानुषाणामयं गिरिः । तथापि तेषां भक्तिस्तु शुद्धा भवति तद्गिरौ ।। २३ ।। यस्य यस्य यथा भक्तिस्तस्य सिद्धिश्च तादृशी । (१६-२१)