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383 श्रीभगवानुवाच त्वया यदुक्तं राजेन्द्र ! सर्वमेतद्भविष्यति । इति दत्वा वरं तस्मै सम्मान्यैव यथोचितम् ।। ३८ ।। विवाहार्थमागतानां ब्रह्मादीनां स्वावासगमनम् ब्रह्मोशादि सुरान्सर्वान् समभ्यच् यथोचितम्। स्वलॉकगमनायैवमनुमेने मुदा हरिः । ब्रट्मादि बाराती गणों को विा करना भगवान बोले-हे राजेन्द्र ! जो कुछ तुमने कहा वह सब कुछ होगा । इस प्रकार उनको वरदान देकर उन्हें यथोचित सम्मानित कर तथा ब्रह्मादि सभी देवताओं का यथोचित सम्मान कर भगवान ने प्रसन्न भाव से उनको स्वगदि लोकों में जाने की आज्ञा दी । गतेषु तेषु सर्वेषु श्रिया भूमिजया युतः ।। ३९ ।। विहरन्स यथापूर्व स्वामिपुष्करिणीतटे आस्ते दिव्यालये देवोऽप्यच्यमानो गुहेन वै ।। ४० ।। उन सबों के चले जाने के बाद से श्री लक्ष्मीजी तथा भूमिकन्या पद्मावती जी के साथ स्वामी पुष्करिणी के तटपर विहार करते हुए श्री कार्तिकेय जी से पूजित मणवान अपने उसी दिव्यालय में पहले के समान ही विरराजभान हैं । (३९.४०) इति श्रीवराहपुराणे भूगोलोपाख्याने धरणीवराहसंवादे श्रीवेंकटाचलमाहात्म्ये उत्तराधे ब्रहमादिभि:साकं श्रीनिवासस्य वियद्राजपुरागमनकमलालयापरिणयादिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ।