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334 वसुनामकान्षाद्वृत्तान्तः धरण्युवाच : कलौ युगे भूमिधर ! केन त्वं द्रक्ष्यसे प्रियः । विमानं केन ते देव कार्यतेऽस्मिन्महीधरे। १ । श्रीनिवासोऽपि केनैव द्रक्ष्यते सुभगाकृतिः । एतद् ब्रूहि मम प्रीत्या श्रोतुं कौतूहलं विभो ।। २ ।। ससुत निषाद कथा कही, रङ्गदास गिरि आय । प्रभू मण्डप रचना विपिन, प्रभु सेवन हि दुराय ।। १ ।। क्रीड़ा किन्नर देखकर, प्रभु कैङ्कर्य भुलाय । निज स्वरूप पहचान पुनि होना दुखित लजाय ।। २ ।। दानसान्त्वना दोष तज, तहि अमल वरदान । तोण्डमान मृगया गमन, शेषाचल सजि वान ।। ३ ।। पञ्चवर्ण शुक की कथा, वसु सह नृप पूजार्थं । गमन पद्म सब शुक कथन, स्तुति सुरु श्रीकमलार्थ ।। ४ ।। स्तुति प्रसन्न आशीर्वचन, विमल दान सर्वान्त । इस नव में अध्याय में लिखा सूत भगवन्त ।। ५ ।। वसुनामक निषाद् वृत्तान्त धरणी देवी बोली-हे पृथ्वीधर वराह भगवान् ! हे प्रिय ! ! कलियुग में कौन आप का दणेन पायेगा ? इस पर्वतपर आपका विमान कौन बनायेगा, और