तब उसी घृक्षस्थ विष्णु भगवान ने हाथ से उसके बङ्ग को पकड़ लिया । किसने खङ्ग पकड़ लिया, यह देखते-देखते उसने वृक्ष को देखा। बाद शंख-चक्र गदायुक्त एवं अपने शरीर में छिपाये हुए भधवान को वेखा और उस खड्ग को छोड़ भगवान को प्रणाम कर बोखा कि हे देव देवेश! आप यह कैसी चेष्टा कर रहे हैं। पुत्रवधोद्यत वसु से भगवान की उक्ति श्रीभगवानुवाच : वसो श्रृणु वचो मे त्वं पुत्रस्ते भक्तिमान्मयि ।। १३ ।। त्वत्तोऽपि मे प्रियतमस्तस्मात्प्रत्यक्षमागतः । तस्य सर्वत्र तिष्ठामि तव स्वामिसरस्तटे । इति देववचः श्रुत्वा प्रीतिमानभवद्वसुः ।। १४ ।। (११-१२) श्रीभगवान जी बोले-हे वसु ! तुम मेरी बातों को सुनो, तेरा पुत्र गुप्त में भवित रखता हैं, वह भुझे तुमसे भी अधिक प्रिय है, इसलिए मैं प्रत्यक्ष आ गया । उसके लिए मैं सर्वत्र और तेरे लिये तो स्वामिपुष्करिणी तटपट ही रहता हूँ । भणबान की इन छातों को सुन वसु अत्यन्त प्रसन्न हुआ । (१३-१४) 44 रङ्गदासस्य श्रीनिवाससेवार्थ श्रीशेषाचलागमनम् एतस्मिन्नेव काले तु पाण्ड्यदेशात्समागतः । बाल्यात्प्रभृति शूद्रोऽपि विष्णुभक्तिसमन्वितः ।। १५ ।। नारायणपुरीं प्राप्य श्रीवराहं प्रणम्य च । तत्र शृत्वा श्रीनिवासं वेङ्कटाद्रिनिवासिनम् ।। १६ ।। स्वयम्भूदेवदेवेशसेवितं प्रययौ ततः । ।
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