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338 भगवत्सेवार्थ रंगदास का शेषाचल पर आना इसी समय पाण्ड्यदेश से एक आदमी छाया जो शूद्र होने पर भी बाल्यकाल से ही विष्णुभक्ति से युक्त था। वह नारायणपुरी पहुँच श्रीवराह भगवान को प्रणाम कर वही श्री वेङ्कटाद्रिनिवासी श्रीनिवास भगवान को ड्रह्मः तथा देबेन्द्रसेवित सनष्कर ठधर से चला गया। । सुवर्णमुखरी प्राप्य स्नात्वा चोत्तीर्य तत्तठे ।। १७ ।। कमलाख्ये सरसि च स्नात्वा पुण्यप्रदायिनि । तत्तीरवासिनं देवं कृष्णं रामेण संयुतम् ।। १८ ।। नमस्कृत्थ ततः प्रायाद्वनं गजघटायुतम् । शनैस्संप्राप्य शेषाद्रिं निरं सन्ददर्श ह ।। १९ ।। (१५-१६) सुवर्णमुखरी को पा, उसमें स्नान कर, उते पार हो, उसके तट पर के कमला नामक पुण्यप्रदाथक तालाब में स्नान कर तथा उसी के तीरपर निवास करनेवाले बलराम के साथ कृष्ण भगवान को प्रणाम कर, फिर हाथी समूहों से युक्त थल में चद्या गया एवं धीरे धीरे शेषाद्रि पर पहुँचकर एक झरना देखा । (१७-१९) तत्समाप समासाद्य कापलापूजत शिवम् । तत्पुरश्चक्रतीर्थ तदगाधं पापनाशनम् ।। २० ।। तत्र स्नात्वा तताऽगच्छद्वङ्कटाद्र शनैःशनैः । आराध्ढुं गच्छता मार्गे युक्तो वैखानसेन च ।। २१ ।। रङ्गदासस्त्वारुरोह बालो द्वादशवार्षिक । स्वामिपुष्करिणीं प्राप्य स्नात्वा भक्तिसमन्वितः ।। २२ ।। वैखानसेन मुनिना गोपीनाथेन पूजितम् । वनमध्ये तरोर्मुले स्वामिपुष्करिणीतटे ।। २३ ।।