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338 तिष्ठन्तं पुण्डरीकाक्ष श्रीभूमिसहितं हरिम् । आकाशस्थं सन्ददर्श पीतनीलाकृतिं शुभम् ।। २४ ।। पार्श्वस्थशङ्खचक्राभ्यां गदाऽसिभ्यां निषेवितम् । पक्षौ विस्तीर्य चाकाशे देवमूर्छिन वितानवत् । स्थितं च गरुडेशानं पश्चाच्छाङ्ग शरं तथा ।। २५ ।। उसके निकट श्री कपिल जी से पूजित शिवजी के पास पहुँधकर उसके आगे अगाध तथा पापों को नाश करनेवाले जो चक्रतीर्थ हैं, उनमें स्नान कर पीछे धीरे धीरे श्रीवेङ्कटाद्रि पर चला गया और रास्ते में उनकी पूजा करने के लिए जाता हुआ वैखानसों से युक्त होकर बारह, वर्ष का बालक वह रंगदास उस पर सड़ गया फिर स्वामिपुष्करिणी को पाकर उसमें भक्ति के साथ स्नान कर, वैखानसमुनि गोपीनाथ से पूजित, वन के बीच वृक्ष के तले स्वामिपुष्करिणी के तीरपर श्री तथा भमिदेवी सहित पुण्डरीकाक्ष, पीले, नीले, सुन्दर आकृतिवाले आकाशस्थ तथा दोनों इगलों में स्थित शंख, चक्र, गदा तथा तलवारों से सेवित भगवान हरि एवं आकाश में भगवान के माथे के ऊपर दोनों पंखों को वितान (तम्बू) के समान फैलाकर ठहरे गरुड जी, पीछे में छाङ्गैधन्वा, तथा बाण को देखा । (२०-२५) श्रीनिवासार्थ रङ्गदासकृतदिव्योद्यानमण्डपनिर्माणानि एवं दृष्ट्वा श्रीनिवासं विस्मितो रङ्गदासकः । अस्य देवस्य चारामं करिष्यामीत्यचिन्तयत् ।। २६ ।। निश्चित्य मनसा सर्व तरुमूलेऽवसत्सुधीः । कृत्वा वैखानसाद्विष्णोः नैवेद्य च दिने दिने ।। २७ ।। शनैश्छित्वा वनं घोरं वृक्षाञ्श्च्छेिदपार्श्वगान् । आस्थानचि-चां देवस्य रमायाश्वम्पक तरुम् ।। २८ ।। देवाज्ञप्तो वर्जयित्वा तावभौ देवसेवितौ । . .