पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३५९

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341. एवं देवस्य कैङ्कर्य कुर्वस्तस्थावुदारधीः । तस्यैवं वर्तमानस्य समास्त्वा सप्ततेर्गताः । कुर्वाणे पुष्पापचयं रंगदासे महात्मनि ।। ३४ ।। उसे लेकर पुजारी श्री भूमि सहित श्रीनिवास सगवा के कन्धे तथा गस्तक पर बांधते थे । इसी तरह भगवान का कार्य (सेवा) करते-करते व महा उदारभेता रहने लगा । रङ्गदासस्य गन्धर्वक्रीडादर्शनेन भगवत्कैङ्कर्थविस्मृतिः आरामे सरसि स्नातुं गन्धर्वः कश्चिदाययौ । गन्धर्वराजः कन्याभिस्तरुणीभिः समन्वितः ।। ३५ ।। (३३-३४) जलक्रीडां करोति स्म दिवि स्थाप्य विमानकम् । सुरूपाभिश्च सहितं क्रीडन्तं कमलाकरे ।। ३६ ।। पश्यन् श्रीरङ्गदासोऽयं व्यस्मरन्माल्यसंचयम् । जितेन्द्रियोऽपि तत्क्रीडां पश्यन् रेतः ससर्ज ह ।। ३७ ।। गन्धर्व क्रीडा देखकर रङ्गवास को भगवत सेवा का विस्मरण होना उसके इस प्रकार रहते सत्तर वर्ष बीत गये । महात्मा रंगदास के फूज चुनते समय उसी बगीचे के तालाब में कोई गन्धर्व स्नान करने आया । गन्धर्वराज युषती कन्याओं से युक्त होकर, आकाश ही में विमान को ठहराकर जलक्रीडा करने लगे । उन सुन्दरी स्त्रियों के साथ कमल से पश्पूिर्ण लाला में असको क्रीडा करते देखकर धी एंगदास माला गूथवा भूझ गवै । जितेन्द्रिय होले एर भी उन्होंने सप्त क्रीडा को देखते ही वीर्य को छोडा.। (३५-३७)