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342 पश्यतस्तस्य सरसः समुत्तीर्य मनोहरः । दिव्यवस्त्राणि चाच्छाद्य कान्ताभिस्सह सस्मितम ।। ३८ ।। अधिरुह्य विमानं तु ययौ स धनदालयम् । उनके देखते देखते उस मनोहर तालाब से निकलकर, दिव्य वस्तों के पहन, स्त्रियों के साथ हँसते हँसते अपने विमान पर चढ़कर वह गन्धर्व कुबेर के घर चला गया । गते गन्धर्वराजे तु रङ्गदासो विमोहितः ।। ३९ ॥ त्यक्त्वा च तानि माल्यानि स्नात्वा सरसि लज्जितः । पुनराहृत्य पुष्पाणि शनैर्देवालयं ययौ ।। ४० ।। गन्धर्वराजा के चले जाने पर रंगदास मोहित हो गये और उन मालाओं को छोड़, स्नानकर, पुनः फूलों को लाकर, लज्जित होकर धीरे धीरे देवालय में पहुंचा (३९-४०) वैखानसस्तु तं दृष्ट्वा पूजाकालमतीत्य च । आगतं किमिति प्राह सखेऽतिक्रम्य चागतः । न बद्धा मालिकाश्चापि त्वयाऽऽरामे च किं कृतम् ? ।। ४१ ।। पूजाकाल बिताकर आया हुआ उसे देखकर वैखानसों ने कह-हे सख ! यह क्या ! समय बिताकर क्यों आये ? माला भी गूथा नहीं गया । बगीचे में तुमने क्या किया ? (४१) श्रीवराह उवाच : इत्थं पृष्टो रङ्गदासो नावदल्लज्जया ततः । लज्जितं रङ्गदासं तं प्रोवाच मधुसूदनः ।। ४२ ।। श्री वराह जी बोले-ऐसा पूछे जाने पर लज्जा से रंगदास ने कुछ भी नहीं कहा । तब उस लज्जित रंगदास से मधुसूदन बोले । (४२)