345 तं दृष्ट्वा विस्मितो भूत्वा गृहीतुं तमनुदुतः । सुवर्णमुखरी तीत्व ब्रह्मर्षि शुकमुत्तमम् ।। ५३ ।। नमस्कृत्याभ्यनुज्ञातस्ततोऽगच्छद्वनाद्वनम् । ददर्श रेणुकां देवी वल्मीकाकार संस्थिताम् ।। ५४ ।। इष्टदामिष्टभक्तानां दिव्यारामनिवासिनीम् । परिवारैः सदोपेतां पूजितां त्रिदशैरपि । तोण्डमानपि तां नत्वा ततः पश्चान्मुखो ययौ ।। ५५ ।। उसको देखकर आश्चर्यान्वित होकर उसको पकडने के लिए पीछे-पीछे दौइते हुए सुवर्णमुखरी को पार कर ब्रह्मर्षि परमोत्तम श्री शुकरुषि को नभस्कार कर तथा माझा पाकर, तदनन्तर एक वन से दूसरे वन को गा और वहाँ वल्मीकाकार में बैठी हुई, उस दिव्य बगीचे में निवास करनेवाली, भक्तों को इष्टफल देनेवाली; सदा परिवारों से घिरी तश्रा देवताओं से भी पूजिता सगवती रेणुकादेवी को देखा तथा उनको नमस्कार करके पश्चिममुख लौट गाझा । (५३-५५) श्रीनिवाससमीपस्थञ्चवर्णशुकवृत्तान्तः पञ्चवर्ण शुकं दृष्ट्वा तं जिघृक्षुरनुहृतः । सवदञ्च्छ्रीनिवासेति गिरिं शीघ्रतरं ययौ ।। ५६ ।। अनुद्रवन्स राजापि गिरिराजं समारुहत् । दरीश्च विविधाः पश्थञ्छिखराणि समन्ततः ।। ५७ ।। शुकभन्वेषभानोऽसौ श्यामाकवनमेयिवान् । श्रीनिवास के निकटस्थ पञ्चवर्णशुक कथा बहाँ वह पंचरंगे सुग्गे को देखकर उसको पकड़ने की इच्छा से पीछे-पीछे दौडा । धह (सुग्गा) “श्रीनिवास, श्रीनिवास बोलता बोलतां शीघ्र पर्वत पर चला 45
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