पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३६५

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तं देबमाराधयितं गमिष्यामि नृपात्मज ! विश्रम्यतां वक्षमले यावदागमनं मम पुत्रेणानेन सहितो विहर त्वं यथा सुखम् ।। ६४ ।। 347 उस वनेचर ने कहा-हे राजेन्द्र ! श्रीनिवास भगवान का परम प्रिय वह पंचवर्ण सुग्गा उनके पास रहनेवाली श्री सथा भूमि देवियों से सदा पालित होकर सर्वदा स्वामिपुष्करिणी के तीर पर भगवान के निकट रहता है ! हे श्रीमान ! उस सुग्गे को कोई भी नहीं पकड़ सकता है ! सारे दिन वह इसी सुन्दर गिरिवर पए स्वेच्छा से विहार करता हुआ सन्ध्या समय भगवान के निकट जाकर उनके पास ही में रहता है। हे नृपात्मज ! मैं उन्हीं (श्रीनिवास भगबान !) की पूजा करने जाता हूँ । आप मेरे आ जाने तक इसी वृक्षतल में विश्राम करें और मेरे इस पूख के साथ यथा सुख विद्दार करें । (६१-६४) राजोवाच :- त्वया सहागमिष्यामि द्रष्टं देवं जनार्दनम । त्वं मे दर्शय देवेश वेङ्कटाद्रिनिवासिनम् ।। ६५ ।। तस्य राज्ञो वचः श्रुत्वा श्यामाकं मधुमिश्रितम् । चूतपत्रपुटे क्षिहवा राज्ञा सह ययौ हरिम् ।। ६६ ।। राजा बोले-श्री भगवान जनार्दन देव को देखने के लिये मैं भी तुम्हारे साथ ही जाऊँगा, तुम श्री वेङ्कटनिवासी भगवान को दिखला देना । उस राजा के वचन को सुनकर शामा के चावल को मधु में लपेट (मिलाकर) आम के पत्ते पर २ख कर राजा के साथ भगवान के पास गया । (६५-६६) तोण्डमान्नृपस्य निषादेन सह श्रीनिवाससेवार्थ गमनम् गत्वा सुदूरमध्वानं पश्यन्तौ तौ शिलातलम् । मुहूर्तादेव संप्राप्तौ स्वामिपुष्करिणीं शुभाम् ।। ६७ ।।