पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३६६

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348 स्नात्वा तत्र विधानेन राज्ञा सह निषादपः । दर्शयामास देवेशं राज्ञस्तस्य महात्मनः ।। ६८ ।। राजनिषद् के साथ भगवत्सेवार्थ जाना वे दोनों शिलातल देखते-देखते बहुत दूर रास्ता क्षाकर क्षणभर में सुन्दर स्वामि-पुष्करिणी पर पहुँच गये ! वहाँ राजा के साथ साथ निषादराजा ने विधिपूर्वक इनान कर उस "हात्मा राजा हो भगवान के क्षणेन करायै । (६७-६८) स्वामिपुष्करिणीतीरे स्थितं श्रीवृक्षमूलके । चतुर्भुजमुदाराङ्गमीषत्स्मितमुखाम्बुजम् । दिव्यपीताम्बरधरं किरीटकटकोज्ज्वलम् ।। ७० ।। पार्श्वस्थाभ्यां सुरूपाभ्यां श्रीभूमिभ्यां समन्वितम् । परितः शङ्कचक्रसिगदाशाङ्गषु सेवितम् ।। ७१ ।। अन्यैर्दिव्यायुधैश्चापि दिव्यमाल्यैनिषेवितम् स्कन्देनाराध्मानं तं त्रिसन्ध्यं पुरुषोत्तमम् ।। ७२ ।। वल्मीकगूढपादाञ्जमाजानुपुरुषोत्तभम् । ततो दृष्ट्टा झुदा देवं प्रणेम तुरुभौ तदा ।। ७३ ।। उव स्वाभिपुष्करिणी के तीर पर वेल के वृक्ष के नीचे स्थित, तसी के फूल के सभान, कमसदल के समान घडी बडी यांखाले, चारभुजायुक्त, उदार शरीरवाले भन्द मन्द हंसते हुए मुख कमलवाले, दिव्य पीताम्बरधारी, किरीट तथा कटक से प्रकाशित, पाश्र्वस्थ श्री तथा भूमिदेवी जैसी सुन्दर देवियों से समन्विस, चतुर्दि शंख, चक्र, गदा, खड्ग धनुषादि से सेवित, अन्यान्य दिव्य आयुधों, हथियारों एवं दिष्य माताओं से सुशोभित स्वामि कार्तिकेय जी से त्रिसन्ध्या (तीनों समय), पूजित