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349 बल्मीक में छिपे, चरणकमलयुक्त तया आजानुवाहु, पुरुषोत्तम श्रीनिवास भगवान की देखकर प्रसन्नता से उन दोनों ने उनको प्रणाम किया । (६९-७३) राजा तु प्राञ्जलिर्भूत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः । आनन्दलहरीं प्राप्य न प्राज्ञायत किञ्चन !। ७४ ।। आश्चर्यपूर्ण नेत्रों के साथ, राजा आनन्द लहरी का अनुभव करते हुए कि कर्तब्य विमूढ हो गया हाथ जोड़कर चुपचाप अज्ञ जैसा खड़े रहे। (७४) निषादोऽपि निवेद्यैव श्यामाकं मधुमिश्रितम् । राज्ञे तदर्ध दत्वैव शिष्टार्थ भक्तवान्स्वयम् ।। ७५ ।। पीत्वा पुष्करिणीतोयं तेन राज्ञा समन्वितः। स पुनः श्यामाकवने पुण्यां पर्णकुटीं ययौ ।। ७६ ।। उषित्वा चैकरात्रं तु प्रातरुत्थाय भूमिपः । स्वसैन्येन समायुक्तो निवृत्तः स्वपुरं ययौ ! ७७ ।। निषाद ने भी मधु मिले हुए शामा के चावड का नैवेद्य चढावर, उसका शाद्रा राजा को दे बाकी आधा खा लिया । पुनः स्वामिपुष्करिणी का जल पीकर राजा के साथ अपनी पुण्य पर्णकुटी में चला राया । एक रात सोकर प्रात:काल उठ, अपनी सेना से युक्त होकर राजा लौटकर अपने नगर को चला गया । (७५-७७) तोण्डमान्नृपं प्रति पणुकोक्तिः पुनर्देवीवनं गत्वा हयादवतार ह । चैत्रशुद्धनवम्यां तु पूजयामास रेणुकाम् ।। ७८ ।। हावध्य परमान च सापस्करमनकशः । पशूपहारसहितं धूपदीपसमन्वितम् ।। ७९ ! ।