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350 सुराधटीशतं दत्वा जातीकेसरवासितम् । एवं सम्पूजिता देवी प्रीता राज्ञे वरं ददौ ।। ८० ।। तोण्डमान राजा से रेणुका की उक्ती पुन: देवी वन में जाकर घोडे से उतरा और चैत्र शुभल नवमी को रेणु का भगवती की पूजा की। खीर परमान्न अनेकों प्रकार की सामग्रियाँ पशुओं के उपहार धूप तथा दीप के साथ-साथ जाती फूल एवं केसर से सुवासित सौ घड़े सुरा (मद) द्वारा इस प्रकार से पूजित हो देवी रेणुका ने प्रसन्न होकर राजा को वर दिया । (७८-८०) आविष्ट: पुरुषः कश्चिदवदनृपसत्तमम् । शृण राजन्भविष्यं ते राज्यं नियतकण्टकम् ।। ८१ ।। राजंस्तवैव नाम्नात्र राजधानी भविष्यति मत्समीपे महाराज चिरं राज्यं करिष्यसि ।। ८२ ।। देवदेव प्रसादश्च भविष्यति तवानघ । इति दत्वा वरं तस्मादाविष्टः प्रकृतिं ययौ । कोई पुरुष आविष्ट होकर उस राजधेष्ठ राजा से बोला । है राजन ! सुनो तुम्हारा राज्य भविष्य में अकंटक रहेगा । हे राजन ! तुम्हारे ही नाम से यह राजधानी होगी । हे महाराज ! तुम मेरे निकट ही चिरकाल तक राज्य करोगे । हे निष्पाप ! तुम पर देवादिदैव भगवान की कृपा भी होगी । इस प्रकार उसको वरदान देकर वह आविष्ट पुरुष पुनः चैतन्य हो गया । (८१-८३) शुकवर्णितपद्मसरोवरमाहात्म्यम् ततो लब्धवरो राजा ययौ शुकमुनिं पुनः ।। ८३ ।।