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354 ते मामनेन स्तोत्रेण स्तुत्वा स्थानमवाप्नुयुः । अखण्डैर्बिल्वपत्रैर्मामर्चयन्ति नरा भुवि ।। ९८ ।। स्तोत्रेणानेन ये देवा नरा युष्मत्कृतेन वै । धर्मार्थकाममोक्षाणामाकरास्ते भवन्ति वै ।। ९९ ।। इदं पद्मसरो देवा ये केचन नरा भुवि । प्राप्य स्नानं करिष्यन्ति मांस्तुत्वा विष्णुवल्लभाम् ।। १० ।। तेऽपि श्रियं दीर्घमायुर्विद्यां पुत्रान्सुवर्चसः । लब्ध्वा भोगांश्च भुक्त्वात्ते नरा मोक्षमवाप्नुयुः ।। १०१ ।। इति दत्वा वरं देवी देवेन सह विष्णुना । आरुह्य गरुडेशानं वैकुण्ठस्थानमाययौ ।। १०२ ।। इन्द्र आदि देवों से स्तुति से संतुष्ट लक्ष्मी के बचन लक्ष्मीजी बोली-देवताओं के शत्रुओं को सहसा मारकर आप लोग अपने अपने स्थान व लोकों में साथ और जो मनुष्य संसार में स्थान हीन अथवा स्थान भ्रष्ट हो गये हैं, वे मेरे इसी स्तोत्र से स्तुति कर उस उस स्थान को प्राप्त करेंगे । पृथ्वी पर जो मनुष्य अखण्ड बिल्व पत्र से मेरी पूजा करते हैं, तथा जो कोई देवता वा मनुष्य आप लोगों के किये हुए इस स्तोत्र से पूजा करते हैं वे धर्म, अर्थ , काम एवं मोक्ष सभी को खान अवश्य होते हैं। हे देवतागण ! इस पद्मसर में जो कोई मनुष्य झाकर मुझे विष्णु वल्लभा की स्तुति कर स्नान करेगा, वह भी धन, दीभयु तथा विद्या से युक्त तेजस्वी पुतों को या, अनेक भोगों को भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त करेगा । श्री विष्णु भगवान के साथ साथ श्री लक्ष्मीदेवी, इस वरदान को दे, गरुड पर सवार हो वैकुण्ठ में आ गयी । (९७-१०२) इति श्री वाराहपुराणे भूगोलोपाख्याने धरणीवराहसंवादे श्रीड्नटाचलमाहात्म्बे उत्तरार्धे वसुनामकनिषादवृत्तान्त पवसरोोमाहात्म्वादिवर्णनं नाम नबमोऽध्यायः