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357 वराहं सुभगाकारं श्यामाकवनमध्यतः । दृष्द्वा तं धनुरादाय सिंहनादं चकार ह ।। ९ ।। वराहस्तध्वनिं श्रुत्वा वनान्निष्क्रम्य सत्वरम् । ययौ तं चाप्यनुययौ वराहं स निषादपः ।। १० । रात्रिशेषभनुदुत्य बने चन्द्रसमप्रभम् । वल्मीकं प्रविशन्तं च ददर्श स निषादप ।। ११ । गच्छन्तं पूर्णिमा चन्द्रमस्तं गिरिवरं यथा । धसु को वल्मीक में श्री वराह का दर्शन होना निषाद के बन में भगवान् वराह रूप धारण कर, पके हुए शाभा को खाते हुए, रास रात भर विचरते रहते थे । वह निषाद वराह के पैरों का चिह्न रोज खोजता रहा, परन्तु उस वराह को न देखकरें धनुष धारणकर रात को जागते हुए यन में चरते हुए देखा । उसको देखकर धनुष लेकर सिंहनाद किया । उस शब्द को सुनकर बराह बहुत शीघ्र उस वन से निकलकर चला । निषादराज भी उसके पीछे-एीछे दौड़ा ! रात भर पीछे-पीछे दौड़ते शेष में जंगल में ही किसी वल्मीक (दिअांड) में उस चन्द्रमा की प्रभावादै को, पूर्णिमा की चन्द के गिरिवर में अस्त होते जैसा प्रवेश करते देखा । (६-११) विस्मितोऽखानयत्कोपाद्वल्मीक स निषादपः ।। १२ ।। धरावराहो ददृशे भूच्र्छितोऽयं पपात ह । उस विस्मित निषाद राजा ने क्रोधित होकर उस धल्मीक को उखाड डाला । वहाँ भूषराङ्जी देख पड़े ? वह तो मूच्छित होकर गिर पड़ा । (१२) पितरं मूर्धितो दृष्ट्टा तत्पुत्रो भक्तिमांस्तदा ।। १३ ।।