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353 न्यवेदयद्देव वचःपित्रे सर्वं यथातथम् । स श्रुत्वा विस्मितो भूत्वा कृत्स्नं पुत्रवचःशुभम् ।। १९ ।। राज्ञे वक्तुं ययौ शीघ्र निषादः स्वानुगैः सह । निषादपुत्र अपने पिता को सुधपूर्वक बैठा देख नमस्कार कर भगवान के सब वचनों को यथातथ्य निवेदन किया ! अपने पुत्र के सभी शुभ वचनों को सुन वह निषाद विस्मित ही अपने अनुचरों के साथ यह सब कुछ राजा से कहने को शीघ्र प्रस्थान निया { (१८-२९) तोण्डमान्नृपाय वसुनिवेदित बराहोदन्त वसुनिषादाधिपती राजद्वारमुपागतम् ।। २० ।। निषादाधिपमाज्ञाय द्वारपालैर्नपोत्तमः । आहूय तं निषादेशं सभायां मन्त्रिभिस्सह ।। २१ ।। सत्कृत्य तं वसुं राजा सपुत्रं सपरिच्छिदम् । पप्रच्छ प्रीतिमान् राजा वसुं तं वनगोचरम् ।। २२ ।। किमागमनकृत्यं ते वद त्वं वनगोचर । तोण्डमान राजा से असु का वराह कथा कहना अनन्सर निषाद राज राजा के द्वार पर पहुँचा । राजश्रेष्ठ तोण्डमान ने अपने द्वारपालों से उस निषादराज का आगभन जानकर उसे सभा में बुलाकर मन्त्रियों के साथ-साथ मुख तथा परिवार तमेत बसुका सत्कार कर प्रसस हो उस धनेभर वसु से पूछा-हे वनेचर ! तुम्हारे अगन का मजा प्रबोजन है । . (२०-२२ )