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वसुरुवा राजन्मम वने दृष्टमाश्चर्य शृणु भूपते ।। २३ ।। कश्चिच्छवेतवराहस्तु श्यामाकमचरन्निशि । ततं वराहं धनुष्पाणिरन्वधावमहं नृप ।। २४ ।। अनुक्षुतो वायुवेगो गत्वा वल्मीकमाविशत् । स्वामियुष्करिणीतीरे पश्यतो मम भूपते ।। २५ ।। वल्मीकभश्च तं क्रोधात्मच्छितो न्यपतं भुवि । वसुने जवा दिथा-हे राजन ! मेरे वन में देखे गये आश्चर्य पूर्ण दृश्य को सुनिये-कोई श्वेत वराह रात को श्यामा धान (सावां) चरता था। मैंने धनुष हाथ में धारण कर उस अरह का पीछा किया, अनन्तर वह वायुवेग से दौडकर मेरे देखते-देखते स्वामिपुष्करिणी के तौर पर वल्मीक में घुस गया, क्रोध से उस वल्मील को तोड़ा तो मूर्धित होकर मैं पृथ्वीवर गिर पड़ा । मत्पुत्रोऽयं समागत्य मां हृष्द्वा मुच्र्छितं भुवि ।। २६ ।। शुचिर्भूत्वा देवदेवं तुष्टाव मधुसूदनम् । ततो मयि समाविश्य बराहाध्यवदत्सुतम् ।। २७ ।। राज्ञे निवेद्य क्षिप्र मच्चरित्रं निषादप । (२३-२५) मेरे इस लड़के नै वहा आकर, मुझे पृथ्वीपर मूच्छित पड़ा हुँआ देखकर पवित्र हो देवदेव मधुसूदन भगवान की स्तुति की । तत्पश्चात वराह जी मुझ में आविष्ट होकर मेरे लड़के से खोले कि हे निषादपति ! तुम मेरे चरेित को शीघ्र राजा से कहो । (२६-२७) कृष्णगोक्षीरसेकेन वल्मीके क्षालयेत् नृपः ।। २८ ।।