पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३७९

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दश्यते च शिला काचिद्वल्मीकस्था सुशोभना । वामाङ्कस्थां भुवं मां च वराहवदनं स्थितम् ।। २९ ।। कारयित्वा शिल्पिनाऽथ प्रतिष्ठाप्य मुनीश्वरैः । वैखानसैर्मुनिवरैरर्चयेत्तोण्डमानपि ।। ३० ।। ७31 काली गौ के दूध से इस वल्मीक को वह राजा घो वे, तब वल्मीकस्थ कोई अति सुन्दर शिला देख पड़ेगी और मेरी बाश्री गोदी में बैठी हुई पृथ्वी देवी के साथ हमारी मूर्ति शिल्पी से बनवा मुनीश्वरों से प्रतिष्ठित कराकर बैखानसों तथा मुनिश्रेष्ठों के साथ तोण्डभान् राजा भी पूजन करे । (२८-३०) अथ गत्वा श्रीनिवासं वल्मीकाव्तपदद्वयम । कपिलाकृष्णगोक्षीरसेचनैः क्षालयेच्छनैः ।। ३१ ।। आपादपीठपर्यन्तं क्षालयित्वा दिने दिने । कुर्यात्प्राकारमुभयोरुत्तरे दक्षिणे तथा ।। ३२ ।। इत्युक्त्वा चैवमाऽमुञ्चद्देवः स्वस्थोऽभवन्नृप । इदं ते वक्तुमायातो देवदेवचिकीर्षितम् ।। ३३ ।। पीछे श्रीनिवास के पास जाकर वल्मीक से छिपे दोनों पैरों को कपिला तया काली गौ के दूध से धीरे-धीरे धीवो एवं श्री चरणों से लेकर सिंहादनपर्यन्त नित्य धौकर उस स्थान के दक्षिण और उत्तर दोनों ओर चहार दीवारी बनवावे । हे राजन ! इतना कहकर थराहृने मुझको छोडा, तब मैं स्वस्थ हुआ । देवदेव भगवान की जो इच्छा थी उसे मैं आपसे कहने आया हूँ । (३१-३३) नृपस्य निषाद्वाक्यस्वप्नाभ्यां बिलमार्गेण शेषाचलगमनम् श्रोत्रराह उवाच : तोण्डमानपि तत् श्रुत्वा सुप्रीतो विस्मितोऽभवत्। ततः कार्य विनिश्चित्य मन्त्रिभिः पुष्करादिभिः ।। ३४ ।। 47