पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३८

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20 मुनय ऊचु :- परावरज्ञ सर्वज्ञ सर्वभूतहिते रत ! । मुने सूत ! महाभाग ! किञ्चित्पृच्छाम तद्वद ।। १ ।। वराहरूपी भगवान् धरामुद्धृत्य किं पुनः । तदैव शेषशैलेन्द्रे न्यवसत् करुणालयः ।। २ ।। कालान्तरे वा तत्रैत्य स्थितवान् सर्वदा नु किम् ? । अकरोद्वाऽथ किं तत्र किं दत्तं कृस्य वा' ित्वति ।। ३ ।। चतुर्थोऽध्यायः क्रीडाद्रिप्रविष्टश्रीवराहदिव्यवैभववर्णनम् यह भगवान् वराह नित, करत जीव कल्यान । क्रीडाचल क्रीडा करत, रहे तहीं करि थान ।। १ ।। भगवत आश्रम होत ही, महिमा बढी अनन्त । तेहि वर्णन बहुविधि किया, पर नहि ताकर अन्त ।। २ ।। बहु कारण वश नाम बहु-हुआ प्रसिद्ध नगेश । जेहि सेवन से होत हैं, कोटि कोटि अध शेष ।। ३ ।। पदार्थ दिये ? कीडाद्रि प्रविष्ट श्री वराह के दिव्य वैभव का वर्णन मुनियों ने कहा:–पर (वेदादिज्ञास्त्र) अपर (स्मृति, पुराण, इतिहासादि) के जाननेवाले, सब जीवों के हित करनेवाले हे सूतजी, हम लोग कुछ पूछते हैं, उसे आप कृपया बतलाइए। करुणालय वराह रूप भगवान पृथ्वी का उद्धार करके क्या शेषशैलेन्द्र पर ही सदा के लिए रह गये, अधवा दूसरे स्थान को भी गये ? और अगर वहाँ ही रहे तो वहाँ कौन-कौन काम किया? किन-किन को कौन-कीन (१-३)