पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३८५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

357 गत्वाऽयोध्यामपि पुरी प्रययौ बदरीवनम् । सालग्रामं ततो गत्वा स्वदेशं प्रति निर्ययौ ।। ६० ।। श्री वराहृजी बोले-राजा ने उसके वचन को सुनकर ६ भास पर्यन्त चावल वगैरह (अन्न) तथा धनादि (द्रव्य) देकर रहने के लिये अन्तःपुर में ही घर मी दिया । उसको स्थायी रूप से रखकर वह ब्राह्मण प्रसन्न हो गङ्गास्नानार्थ चला गया । । उस ब्राह्मणोत्तम ने सब क्षेत्रों में उत्तम श्री प्रयाग में आगीरथी (गङ्गा) के पास जाकर, वहाँ स्नान कर, वहाँ से काशी पहुँच, वहाँ तीन दिन निवास कर, बाद गयाजी जा पितृश्राद्धादि किया और अयोध्यापुरी भो जाकर दद्रिकाष्य में भी गया । पुनः वहाँ से शालग्राम जाकर अपने देश के लिए निकल पड़ा । (५७-६०) संवत्सरद्वयेऽतीते चैत्रे मासि शुभे दिने । निवत्तोऽसौ द्विजश्रेष्ठ: शनैरागत्य माधवे एकादश्यां शुक्लपक्षे पुना राजानमाययौ । हे माधवि ! वह ब्राह्मणश्रेष्ठ दी दर्ष व्यतीत हो जाने पर लौटकर चैत्र महीने में शुक्ल पक्ष एकादशी के शुस दिन को धीरे-धीरे राजा के पास आया । (६१) राजा तु विस्मृत्य ब्राह्मणीं नास्मरनृपः ।। ६२ । ब्राह्मणी मानिनी गेहे मृता शुष्का बभूव ह । राजा तो भूलकर उस ब्राह्मणी का ख्याल न कर सके । उसी घर में मरकर सूख गयी । वह मानिनी श्रह्माणी (६२) वीरशर्मा ततो विप्रो गङ्गातोयकरण्डके ।। ६३ ।। विमुच्य बन्धनं त्वेकं गाङ्ग तु करकं शुभम् । प्रदाय राज्ञे प्रच्छ पत्नी कुशलिनीति मे ।। ६४ ।। स्मृत्वाऽथ राजा विप्र तं स्थीयतामिति चाऽब्रवीत् ।