पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३८७

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

प्राप्तजीवा समं स्त्रीभिर्वाह्मणेन च योक्ष्यते । शीघ्र थाहि नृपश्रेष्ठ यथोक्तं वचनं कुरु ।। ७१ ।। अस्थिस्सरोबरमाहात्म्य 369 उसे सुरकर देवादिदेव उस राजा से वोले-हे राजन ! पूर्व भाग में अमृत्यु को निवारण करनेवाले इस स्वि नामक तालाब में द्वादशी के दिन स्नान कर दो; पुन: जीवित हो जाने पर सभी स्त्रियों के साथ उसे उस ब्राह्मण से मिला देना । हे नृपश्रेष्ठ! मेरे उत च्न को यथारीति पालन करो ।(६९-७१) उस श्रेष्ठ ब्राह्मण से इति देवश्चः श्रृत्वा प्रययौ स्वपुरं नृपः । आन्दोलिकासु रम्यासु स्त्रिय आरोप्यतामपि ।। ७२ ।। ब्राह्मणं च पुरस्कृत्य द्रष्टुं देवं ययौ नृपः । अस्थिकटसरः प्राप्य स्नापयामास तः स्त्रियः ॥ ७३ ।। भगवान के इस वचन झो सुनकर राजा अपने नगर में गया और अपनी स्त्रियों तथा उस स्ली को रम्य डोली पर चढ़ाकर, उस ब्राह्मण को आगेकर भगवान को देञ्जने के लिये चला गया एवं दृष्टस्थि कूट सरोवर पर पहुँचकर उन स्त्रियों को स्नान कराया । (७२-७३) 48 त्वगस्थिरूपा सा चापि ताभिः क्षिप्ता सरोवरे । प्राप्तजीवा यथापूर्व सुव्यखितशरीरजा ।। ७४ ।। उत्थिता सरसः स्नात्वा राज्ञीभिस्सह मङ्गला । प्राप्ता च ब्राह्मणं प्रीता भर्तारं पुनरागतम् ।७५ ।। उन स्त्रियों द्वारा उसी सरोवर में डाली हुई अस्थि-पम्मविशेषरूपा उद्य ब्राह्मणी ने भी अपना जीवन पुनः प्राप्त कर रान्यिों के साथ स्नान करके यथापूर्व सुन्दर शरीरवाजी हो, तालाब से निकल, लौटकर आये हुए अपने ब्राह्मण स्वामी को पुनः प्रसन्न हो पाया । (७४-७५)