पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३८८

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राजा हरिं पूजयित्वा ब्राह्मणाय धनं ददौ । सहस्रनिष्कपर्यन्तं वस्त्राणि विविधानि च ।। ७६ ।। स्वदेशगमनायैव सादरं विससर्ज ह । राजा ने श्यवरल की पूजा कर ब्राह्मण को इजार निष्कपर्यन्त धन तथा अनेकों कपड़े दान दिये । तथा अपने देश लौट जाने के लिये आदर से विदा कर दिया । (७६) विप्रः शृत्वा स्त्रियो वृत्तं प्रभावं वेङ्कटेशितुः ।। ७७ ।। आशीः प्रयुज्य राज्ञेऽथ स्वदेशं प्रययौ द्विजः । ब्राह्मण ने श्री वेङ्कटेण भगवान का प्रभाव तथा अपनी स्त्री का चरित्र झुन, राजा को आशीर्वाद दे, पश्चात अपने देश को प्रस्थान किया । विप्रे गते श्रीनिवासो राजानं पुनरब्रवीत् ।। ७८ ।। दिने दिने च मध्याह्न नैवेद्यानन्तरं नृप ।। आगत्य मामर्चयित्वा यथेष्टं स्वर्णपङ्कजैः ।। ७९ ।। गत्वा पुरी स्वधर्मेण राज्य कुरु नराधिप । यद्यदिष्टं तव नृप भविष्यति न संशयः ।। ८० ॥ नागन्तव्थमकालं तु त्वया नृप कदाचन । एवं कालार्चनं कृत्वा गत्वा त्वं स्वपुरे वस ।। ८१ ।। ७ ब्राह्मण के चले जानेपर राजा से भगवान पुनः बोले-हे राजन ! प्रति दिन मध्याह्न काल में नैवेद्य के बाद आकर डोने के कमलों से यथेष्ट पूजन कर, अपनी नगरी में जा धर्म से राज्य करो । हे राजन ! तुम्हारे जो अभीष्ट होंगे वह सभी अवश्य पूर्ण होंगे । इसमें कुछ संशय नहीं है। हे राजन ! अकाश अर्थात बिना समय हे ,भी न आया करो और इसी प्रकार सभयानुकूल पूजा कर अपनी पुरी में जाकर निवास करो । ७८-८१)