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371 राजोवाच : तथा करिष्ये देवेश मध्याहे चार्चयाम्थहम् । इति देवाज्ञया नित्यमर्चयन स्वर्णपङ्कजै ।। ८२ ।। तदूध्र्व तुलसीपुष्पं जात्वपश्यत्स मृन्मयम् । विस्मितो देवदेवेशमपृच्छनृपसत्तमः ।। ८३ ।। राजा बोले-हे देवेश ! मैं वैसा ही ध्याह्न काल में ही पूजन करुंगा । ऐसा कहकर भगवान के आज्ञानुसार उसी तरह स्वर्ण कमलों से नित्य पूजा करता हुआ उसने एक दिन मिट्टी लगे हुए तुलसी के फूलों को देखा और उससे आभ्रति हो राजसत्तभ ने देवादिदेव से पूछा । कुर्वग्रामस्थकुलालवंशजभीमाख्यभक्तोदन्त राजोवाच : केनाच्र्यसे मृन्मयैश्च कमलैस्तुलसीसुमै राज्ञा पृष्टो देवदेवः स्मृत्वा राजानमब्रवीत् ।। ८४ ।। कश्चित्कुलालो मद्भक्तः कुर्वग्रामे वसत्यसौ । स्वगृहेऽर्चयते राजंस्तदङ्गीक्रियते मया ।। ८५ ।। इति देववचः श्रुत्वा तं द्रष्टुं प्रययौ नृपः । द कुर्वग्राम के कुलालवंशी भीमनामक भक्त की कथा राजा ने पूछा-किलसे तुलसी सहित मिट्टी के कमलों से यापकी पूजा की जाती है? राजा के पूछने पर भगवान ने स्मरण ऋर राजा से कहा कि मेरा कोई भक्त कुम्हार कुवै गाँव में बसता है । हे राजन ! वह अपने घर में ही पूजा करता है और उसको हम स्वीकार करते हैं। भगवान का यह वचन सुन राजा। उसको देखने के लिए गये । (८४-८५) गत्वा कुवपुर तस्य कुलालस्य गृहं ययौ ।। ८६ ।।