पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३९

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21 सूत उवाच :- ब्रवीमि तदशेषं च श्रुणुध्वं मुनिसत्तमा ! । आस्थाय श्वेतपोत्रित्वमुज्जहार धरां यदा ।। ४ ।। तदवानाय्य वकुण्ठादचल गरुडन व । कल्पादावेव भगवाँल्लीलारसमहोदधिः ।। ५ ।। विहरन् रमया सार्ध दरीनिझरसानुषु । प्रकाशश्चाप्रकाशश्च तिष्ठत्येव सदा गिरौ ।। ६ ।। यावत्कल्पं वसत्येव प्रोक्तं च परमेष्ठिना । कदाचित् पुण्यशीलेभ्यो दर्शनं वितरत्यसौ ।। ७ ।। कल्पे कल्पे च धरणीमद्धरत्येवमेव हि । श्वेतवराहरूपेण धरणीचोद्धता यतः ।। ८ ।। श्वेतवाराहकल्पः स्यादाख्यया मुनयो ह्ययम् । । तब श्री सूत जी बोले : हे मुनिश्रेष्ठो ! मैं वह सब कहूँगा, आप लोग श्रवण करें । श्री भगवान ने प्रारंभ में ही जब श्वेतवराह रूप धारण किया, तब लीलारस महोदधि वैकुण्ठ से श्री गरुङ जी के द्वारा वेंकटाचल मंगाकर उसी पर कल्पपर्यन्त श्रीरमादेवी के साथ नदी, निझंगरों, गुफाओं में कभी व्यक्तरूप से, कभी अव्यक्तरूप से सदैव विहार करते हुए निवास करने लगे । (कल्पांत तक उसी पर्वतपर निवास रहेगा । ऐसा ब्रह्माजी बोले । (४-६) ३ः भगवान् पुण्यशील ऋषियों को दर्शन भी दे दिया करते । इसी प्रकार हर कल्प में भगवान श्वेतवराह के रूप में पाताल से पृथ्वी का उद्धरण करते हैं। इसी प्रकार कभी-कभी वे कल्प सदा श्वेतवराह कल्प के नाम से विख्यात रहते हैं। (७-८) साधूनां च यदा बाधा धर्मश्चात्यवसीदति ।। ९ ।। यदात्वधमह्यधिको दुष्टाश्च बलिनो यदा । तदा कालानुरूपेण नरदेवादिरूपतः ।। १० ।।