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22 सृष्ठ्ठात्मान महावष्णुः संहरत्यहितांस्तदा । अधर्म सर्वमुत्सार्य सुधर्म पालयत्यसौ ।। ११ ।। रक्षत्येव च साधूश्च वेदविद्याश्च वर्धयन् । अब कभी साधुओं पर किसी प्रकार की बाधा पहुंचती है, तथा धर्म की हानी और अधमों की वृद्धि होती है, जब-जब दुष्ट लोग भगवान हो जाते हैं, तब तब समयानुसार मनुष्य, देवादि अनेक रूप से आत्मा को बदल राजा आदि वेष धारण करके श्री महाविष्णु अहितों का संहार कर सभी अधर्मो को निभूल कर सद्धर्भ को स्थापित करते हैं, एवं वेदविद्या की वृद्धि करते हुए साधुओं की रक्षा करते हैं । (९-११) स्वयं च सर्वभूतानां दृश्यस्तिष्टति कुत्रचित् ।। १२ ।। सर्वदा शेषशैलेन्द्रे विहरन् रमया सह । नित्यैर्मुक्तैश्च देवैश्च कामरूपैश्च संयुतः ।। १३ ।। तिष्ठत्येव सदा तस्मिन् वैकुण्ठाख्ये नगोत्तमे । वे कहीं-न-कहीं सर्वभूतों को दृश्य होकर विराजमान रहते हैं। भगवान वैकुण्ठ नामक इसी सर्वोत्तम पर्वतपर सदा नित्यमुक्त, ऋषिओं, देवताओं तथा श्री रमा देवी के साथ स्वेच्छा रूप धारण कर विहार करते हैं । (१२-१३) वैकुण्ठः स्वर्गसूर्येभ्यः स्वगेहेभ्योऽधिकप्रियः ।। १४ ।। अयं भगवते हृद्यः पर्वतः पुण्यकाननः । मन्त्रसिद्धिस्तपः सिद्धिर्यज्ञसिद्धिस्तथैव हि ।। १५ ।। क्रीडाद्रेः भगवत्सान्निध्येन महिमाधिक्यवर्णनम् काम्यस्य कर्मणः सिद्धिरेवमन्याश्च सिद्धयः । भवन्त्यत्र नराणां च न हि विध्नादिकं क्वचित् ।। १६ ।। अल्पेन तपसाभीष्ठं सिध्यत्यस्मिन् गिरौ वरे। सर्वतीर्थानि सततं पुण्यान्यत्रैव सन्ति हि ।। १७ ।।