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382 तेभ्यो युद्धं कथं दास्येऽह्यसहायोऽतिजीर्णवान् । दिवा नत्तं समायाति रावणः केन हेतुना ।। २५ ।। न जाने मुनिवर्याहं प्रज्ञाचक्षुर्न विद्यते । निमित्तमेकं कथितं द्वितीयं प्रवदामि ते ।। २६ ।। जनक ने कहा-हे महाबुद्धिमान शतानन्द ! अब आगे मेरो क्या गति होगी ? मैं बूद्ध हूँ, पुत छोटे-छोटे हैं, कन्यारत्वों की वृद्धि है, भाई मर गये है, रावण, इन्द्रज त आदि बहुत-से मेरे शत्रु हैं। मैं उन शत्रुओं से युद्ध कैसे करूंगा? मेरा कोई सहायक नहीं है, मैं शिथिल हूँ। आजकल रावण दिनरात क्यों श्रावा करता है? मैं इस बात का निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि बुद्धिरूपी नेत्र मेरे नहीं हैं। यह तो एक दृष्टान्त ही मैंने कहा और दूसरा भी कहता हूँ, उसे सुनिये । (२३-१६) सीतायाश्च सुरूपायाः सुरूपः पुरुषः कथम् । लभ्यते ? वद विप्रेन्द्र ! तृतीयं प्रवदामि ते ।। २७ ।। दींघर्वायुषश्च मे पुत्राः पुत्र्यश्चापि सभर्तृकाः । एकदेशाधिपस्यैव स्नुषास्ताश्च भवन्तु मे ।। २८ ।। ॥ वर्धितं चैव मे राज्यं स्वयमेव पुरोहित ! केनोपायेन वै भूयात्तदेतत्कारणं वद ।। २९ ।। इस सुरूपवती सीता को सुख्प पुरुष कैसे मिलेगा ? तीसरी बात यह कहता हूँ कि मेरे पुत्र दीर्व आयुष्मान, पुत्रियाँ सौभग्यवती और एक ही देश के राजा की पुत्रवधू होवै और मेरे चारों जामाता (दामाद) एक ही राजा के पुत्र हो । और मेरा यह उपाय से स्वयं ही समृद्धशाली हो, सो कहिये । (२७-२९) राज्य िकस जनकाय शतानन्दोक्तः श्रीवेङ्कटाचलप्रभावः अस्ति कश्चिद्विशेषोऽस्मिन्भूलोके भूमिपालक ! दुहितुस्तव कल्याणसुखदं शत्रुनाशनम् ।। ३० ।।