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वैकुण्ठगिरिमाहात्म्यं सभविष्यं सहोत्तरम् । कलौ तत्कीर्तनं पुण्यं सर्वदुःखहरं शिवम् ।। ३१ ।। धन्कामस्य धनद पुत्रकामस्य पुत्रदम् । रोगार्तस्य च रोगान्द्रं ज्ञानिनां ज्ञानसाधनम् ।। ३२ ।। यत् श्रुत्वा सर्वलोकेशो ब्रह्मा ब्रह्मपदं गतः । नीलकण्ठस्तु यत् श्रुत्वा निर्विषः सुखमाप्तवान् ।। ३३ ।। वज्री नाकपदं प्राप्तो यत्कथाश्रवणादरात् । पदान्यापुलोकपालाः यत्कथाश्रवणेन व ।। ३४ ।। किमुक्तकेन विशेषेण तदनन्तफलं शृणु । इत्युक्तो मुनिना तेन जनको वाक्यमब्रवीत् ।। ३५ ।। शतानन्द ने कहा-हे राजन् ! पुथ्वी पर एक विशेषता है । श्री वैकुण्ठ पर्वत का भविष्य और उत्तर सहित माहात्म्य तुम्हारी कन्याओं के लिए कल्याण और सुखदायक तथा शत्रुनाशक है । कलियुग में उस माहात्म्य का कीर्तन पवित्र करनेवाला, सर दुःखों को मिटानेवाला है। यह धनेच्छु के लिये धनदाता, पुत्रेच्छु के लिये पुत्रदाता, रोगियों का रोगाविनाशक और ज्ञानियों के लिये ज्ञान का साधक है, जिसको सुनकर सब लोगों के स्वामी ब्रह्मा ने ब्रह्म पद, शङ्कर ने निषि होकर सुख, इन्द्र ने स्वर्ग लोक तथा सभी लोकपालों ने अपने-अपने पद को पाया है। अधिक कहना क्या है, इसका फल अनन्त है, तुम भी इसको श्रवण करो । मुनि के इतना कहने पर जनक ने कहा-- (३०-३५) वद वैकुण्ठमाहात्म्यं कलौ तच्चरितं कथम् ? जनक बोले-महात्मन ! श्रीवैकुण्ठ का माहात्म्य कहिये । कलियुग में इसका चरित्र कैसा है। (३६)