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386 शिलान्तर्यामी भगवान् श्रीनिवासः सतां गतिः । तमालोक्य हृषीकेशं वृषभो दण्डवद्भुवि ।। ४८ ।। पपात राजशार्दूल ! स विसंज्ञामुपेयिवान् । मुहूर्तान्ते समुत्थाय प्रत्यभाषत केशवम् ।। ४९ ।। उस महापराक्रमी राक्षस ने तुम्बुरुतीर्थ में त्रिकाल स्नान करके करालमुखी, अधोमुखी, नृसिंहरूपाणी शालग्राम शिला की नित्य आराधना करें-ऐसा िनश्चय कर आराधना करते हुए पूजा के अन्त में पुष्प के स्थान में अपना मस्तक-रूप पुष्प तलवार से काटकर भगवान को वड़ा दिया । तुरन्त ही उसको दूसरा मस्तक हो गया । इसी तरह भगवदाराधना करते-करते पांच हजार वर्ष दीत गये । तब कमलनयन, श्रीशालग्राम शिला के अन्दर वास करनेवाले तथा सत्पुरुषों की गति श्रीनिवास भगवान वहाँ पर स्वयं प्रत्यक्ष हुए । उनको देखकर राज श्रेष्ठ चषभराज दण्डाकार पुथ्वी पर गिर बेसुध हो गया, और दो घड़ी के पश्चात उठः खड़ा होकर भगवान से कहने लगा । वृषभ उवाच केशवानन्त ! गोविन्द ! श्रीनिवास ! सूरोत्तम। न च मोक्ष न च स्वर्ग पारमेष्टयप्रदं हरे ।। ५० ।। न याचे जगतां नाथ ! युद्धभिक्षां च देहि मे । दशावतारविभवे श्रुतस्ते विक्रमो हरे! ।। ५१ ।। अद्य त सत्यमाधत्स्व विक्रम पुरुषात्तम ! । देवस्तद्भारतीं श्रुत्वा किञ्चिद्धास्यसुखो हरिः ।। ५२ ।। उवाच वचनं तं हि राक्षसं युद्धदुर्मदम् । श्रुत्वा तदुक्तवान्कृष्णस्तथास्त्वित्यरिमर्दनः ।। ५३ ।। वृषभासुर बोला-हे केशव, अनन्त, गीविन्द, श्रीनिवास, देवश्रेष्ठ, जगन्नाथ ! न मोक्ष मांगता हूँ, न स्वर्ग और न ब्रह्ममपद ही ; किन्तु मैं युद्ध की भिक्षा