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387 मांगता हूँ, वही मुझे दीजिये । हे इरे! मैंने दश अवतारों की विभूति में आपके पराक्रम को सुना है। हे पुरुषोत्तन ! उस पराक्रम को आज आप सरप्र कीजिये । राक्षस की इस बात को सुनकर श्रोहरि कुछ हँले । युद्ध के लिये मदान्ध उस राक्षस से शत्रुमर्दन भगवान ने “ तथास्तु ” कहा । (५०-५३) तयोर्युद्धमभूत्तत्र वृषभश्रीनिवासयोः । यत्कृतं श्रीनिवासेन तत्कृतं वृषभेण च ।। ५४ ।। तदद्भुतमभूत्तत्र देवानां पश्यतामपि । तद्युद्धकौशलं दृष्ट्वा भगवान्पर्यपूजयत् ।। ५५ ।। वृषभासुर और श्रीनिवास भगवान का युद्ध ठल गया। श्रीनिवास भगवान ने जो-जो काम किये, वृषभासुर ने भी वही काम किये । देखनेवाले देवताओं को भी यह युद्ध परम आश्चर्य पूर्ण मालुम हुआ । भगवान ने भी उसका युद्ध-कौशल देखकर उसकी सराहना की । {५४-५५) 'भो राक्षसकुलोत्पन्न ! पश्य मे पौरुषं बलम्' । इत्युक्त्वा दर्शयामास गरुडं विकृताकृतिम् ।। ५६ ।। तत्रस्थं वासुदेवं च विश्वरूपिणमव्ययम् । सहस्रभुजसंयुक्तं सहस्रायुधभूषितम् ।। ५७ ।। “हे राक्षसकुल में उत्पन्न दृषभ ! मेरै अलौकिक बल को देखो ”-ऐसा कहकर गरुड़ के भयंकर स्वरूप और उसके ऊपर सहस्रबाहु. सहस्रायुश्चयुक्त तथा विनाश रहित सर्वात्मा वासुदेव को भी दिखलाया । (५६-५७) तन्मायां राक्षसो दृष्ट्वा स्वयं च गरुडं हरिम् । दर्शयन् व्यञ्जयामास स्वमायां सुरमोहिनीम् ।। ५८ ।। उस वृषभ राक्षस से भी स्वयं माया को वैसे ही गरुड़ तथा उसके ऊपर परमात्मा नारायण वासुदेव क्रो दिखला कर देवताओं को भीहृनेवाली अपनी माया (५८)